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बिजली अधिनियम 2003 के मामलों में सिविल अदालतों का अधिकार क्षेत्र नहीं: हाईकोर्ट Chandigarh News Updates

बिजली अधिनियम 2003 के मामलों में सिविल अदालतों का अधिकार क्षेत्र नहीं: हाईकोर्ट Chandigarh News Updates

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-दर्जनों याचिकाओं का निपटारा करते हुए हाईकोर्ट ने जारी किया अहम आदेश

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-विशेष न्यायिक तंत्र की स्थिति में सिविल अदालतों का दखल वर्जित

अमर उजाला ब्यूरो

चंडीगढ़। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अहम फैसला सुनाते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि बिजली अधिनियम, 2003 के अंतर्गत उत्पन्न मामलों में सिविल अदालतें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। हाईकोर्ट ने पंजाब व हरियाणा से जुड़े दर्जनों मामलों पर सुनवाई करते हुए यह अहम आदेश जारी किया है।

अदालत ने कहा कि अगर कोई विशेष अधिनियम विशिष्ट विषयों पर विशेष न्यायिक तंत्र स्थापित करता है और उन पर सिविल अदालतों के अधिकार को स्पष्ट रूप से वर्जित करता है, तो सिविल अदालतें उन मामलों की सुनवाई नहीं कर सकतीं। अदालत के समक्ष यह प्रश्न रखा गया कि क्या सिविल अदालत का अधिकार क्षेत्र केवल धारा 126 और 127 के आदेशों तक ही सीमित है या अन्य धाराओं जैसे धारा 135 पर भी यह रोक लागू होती है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बिजली अधिनियम की धारा 145 एक व्यापक रोक लगाती है, जो न केवल धारा 126 और 127 बल्कि धारा 135, 136, 137, 138, 139, 140 और 150 जैसे मामलों पर भी लागू होती है, बशर्ते कार्रवाई अधिनियम के अंतर्गत की गई हो।

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 135 से 140 और 150 के तहत अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय सक्षम हैं और वे दोष सिद्ध होने के बाद ही दंड या मुआवजा निर्धारित कर सकते हैं। धारा 154(5) के अंतर्गत सिविल दायित्व का निर्धारण भी तभी किया जा सकता है, जब दोषसिद्धि हो चुकी हो, जिससे अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मिल सके। कोर्ट ने धारा 154 की व्याख्या करते हुए यह भी कहा कि उसमें प्रयुक्त संबंधित व्यक्ति शब्द का तात्पर्य विद्युत आपूर्ति करने वाले से है, न कि उपभोक्ता से। अतः यदि कोई उपभोक्ता चोरी के आरोप से बरी हो जाता है, तो वह इस धारा के अंतर्गत मुआवजे की मांग नहीं कर सकता। धारा 151-ए के अंतर्गत जांच के अधिकार पुलिस अधिकारियों को सौंपे गए हैं। धारा 145 के अंतर्गत स्पष्ट किया गया कि जिन मामलों को बिजली अधिनियम के तहत विशिष्ट रूप से सूचीबद्ध किया गया है, उन पर सिविल अदालतों में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। हालांकि, संवैधानिक सुरक्षा के तहत हाई कोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है।

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