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जयती घोष मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर
देशों के गठबंधनों की क्षमताओं को लेकर निराश होना स्वाभाविक है। सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्यों पर 2023 के शिखर सम्मेलन, समिट ऑफ फ्यूचर तथा जलवायु परिवर्तन को लेकर संयुक्त राष्ट्र के 2024 के कई सम्मेलनों और हाल ही हुए अन्य अंतरराष्ट्रीय जमावड़ों से भी अधूरी प्रतिबद्धताएं ही सामने आई हैं।
ऐसे में जब ट्रम्प अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से पीछे हट रहे हैं, बहुपक्षीय पहलों को नकार रहे हैं, विश्व-व्यापार में अराजकता और असमंजस पैदा कर रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या स्पेन के सेवील में शुरू हुई कॉन्फ्रेंस ऑन फाइनेंसिंग फॉर डेवलपमेंट (एफएफडी4) में कुछ बेहतर हो पाएगा?
यकीनन अमेरिका वहां भी रंग में भंग डालेगा या वहां होने वाले समझौतों की अवमानना करेगा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इससे यह समिट बेकार हो जाएगी। अपने पहले कार्यकाल में ट्रम्प 2015 के पेरिस जलवायु समझौते से कुछ ही महीनों में हट गए थे। लेकिन इससे यह समाप्त नहीं हो गया।
यह सच है कि उसकी गतिविधियों में कमी आई है, लेकिन लगभग सभी यह मानते हैं कि इस समझौते के बिना जलवायु-परिवर्तन में और तेजी ही आएगी। उसके बाद, इस साल अप्रैल में शिपिंग उद्योग को कार्बन उत्सर्जन रहित बनाने संबंधी अंतरराष्ट्रीय मैरिटाइम संगठन (आईएमओ) से भी अमेरिका अलग हो गया था।
उसने चेतावनी भी दी थी कि यदि उसके जहाजों पर ईंधन के उपयोग के लिए कोई नए शुल्क लगाए गए तो वह भी जवाबी कार्रवाई करेगा। लेकिन फिर भी आईएमओ 108 देशों से जहाजों के लिए नए ईंधन मानक और वैश्विक उत्सर्जन मूल्य प्रणाली मंजूर कराने में सफल रहा ही।
यह साफ है कि दुनिया के देश अपनी साझा चुनौतियों पर अमेरिका के बगैर भी फैसले ले सकते हैं। वास्तव में एफएफडी4 से अमेरिका की गैरमौजूदगी फायदेमंद ही होगी। क्योंकि उसका रिकॉर्ड रहा है कि पहले वह अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित के रास्ते खोजता है और फिर येन-केन-प्रकारेण किसी समझौते पर हस्ताक्षर करने या उसे लागू करने से इनकार कर देता है। 2021 में तय हुई ओईसीडी ग्लोबल टैक्स डील पर बातचीत इसका एक उदाहरण है।
लेकिन अमेरिका के बिना भी सफलता पाने के लिए जरूरी है कि दुनिया के अन्य देश वैश्विक-नेतृत्व के रिक्त स्थान को भरें और बहुपक्षीय सहयोग के प्रति भरोसेमंद प्रतिबद्धता जाहिर करें। सौभाग्य से एफएफडी4 आउटकम दस्तावेज का पहला प्रारूप इस अनिवार्यता को स्वीकार करता है और कई उपयोगी और व्यावहारिक प्रस्तावों को आगे बढ़ाता है।

इस दस्तावेज में व्यापक स्तर पर घरेलू संसाधन जुटाने पर जोर दिया गया है। पुरानी अंतरराष्ट्रीय कर-प्रणाली और गैरकानूनी वित्तीय प्रवाह पर अपर्याप्त नियंत्रण निम्न और मध्यम आय वाले देशों के बजट में बाधा है। इन क्षेत्रों में सुधार किए जाएं तो आय व सम्पत्ति की असमानता घटेगी और कर-राजस्व बढ़ेगा, जो शिक्षा, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन रोकने के क्षेत्रों में निवेश के लिए महत्वपूर्ण है।
टिकाऊ विकास की साझा चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक प्रयास विफल रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समझौते व्यापकता और गुणवत्ता, दोनों ही नजरियों से नाकाफी हैं। निजी क्षेत्र के वित्त पोषण से सार्वजनिक क्षेत्र को लाभ पहुंचाने वाला विजन भी काल्पनिक ही रहा है।
आज वैश्विक सार्वजनिक निवेश का मॉडल अपनाने की जरूरत है, जिसमें सभी देश साझा सार्वजनिक चीजों के लिए अपनी क्षमता के अनुरूप योगदान दें। इसके लिए सबसे पहले आईएमएफ और विश्व बैंक में मौलिक बदलाव करने होंगे।
आवश्यकता है कि दोनो संस्थाएं लीक से हट कर दृष्टिकोण अपनाएं, जिसमें अन्य पूंजिगत हितों से ऊपर जनता को रखा जाए। मौटे तौर पर बहुपक्षीय बैंकों को सामाजिक, विकासात्मक और पर्यावरण संबंधी जरूरतों के लिए उधार सीमा को बढ़ाना चाहिए और इसके लिए उन्हें टिकाऊ फंडिंग की जरूरत है।
इसमें बड़ी बाधा यह है कि आईएमएफ और विश्व बैंक में ऐसे बड़े निर्णयों के लिए 85% वोटों का बहुमत चाहिए और इसमें से 16% मतों के साथ अमेरिका स्पष्ट तौर पर वीटो लगा सकता है। बगैर सुधारों के ऐसे संस्थान दिखावटी बनकर रह जाएंगे।
ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय नियामकों को मजबूत किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्र को सामाजिक लक्ष्यों के प्रति जवाबदेह बनाना चाहिए, अन्यथा उनके खिलाफ दंड का प्रावधान हो। वैश्विक पूंजीवाद के दौर में भी ऐसे उपाय किए जा चुके हैं।
अमेरिका के बिना भी सफलता पाने के लिए जरूरी है कि दुनिया के देश वैश्विक-नेतृत्व के रिक्त स्थान को भरें और बहुपक्षीय सहयोग के प्रति भरोसेमंद प्रतिबद्धता जाहिर करें। आईएमएफ और विश्व बैंक में भी बदलाव करने होंगे। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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जयती घोष का कॉलम: दुनिया के देश अमेरिका के बिना भी फैसले ले सकते हैं