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हरियाणा के निकाय चुनावों में जीत दर्ज करने वाले अध्यक्ष और वार्ड सदस्य दल-बदल के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। भले ही उन्होंने चुनाव भाजपा, जजपा, आप या इनेलो के चिन्ह पर लड़ा हो। जीतने के बाद दल बदलने से उनकी निकाय सदस्यता पर कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि दल-बदल कानून निकाय जनप्रतिनिधियों पर लागू ही नहीं होता है।
अधिकतर निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद सरकार के समर्थन में ही जाते हैं। यह चलन वर्षों से चला आ रहा है। कुछ अध्यक्ष और वार्ड सदस्य ही ऐसे होते हैं, जो सरकार के साथ कदमताल नहीं करते। नगर निगमों, नगर परिषदों, नगरपालिकाओं में विकास कार्य तेजी से कराने के लिए नवनिर्वाचित अध्यक्ष और सदस्य सरकार को अपना समर्थन दे देते हैं। जिससे सरकार समर्थित अध्यक्ष और सदस्य होने का उन पर ठप्पा लग जाता है।
नगर निकायों पर इसके लागू होने का प्रावधान नहीं
पंजाब – हरियाणा हाईकोर्ट के एडवोकेट हेमंत कुमार ने बताया कि भारत के संविधान की दसवीं अनुसूची में मौजूद दल-बदल विरोधी कानून केवल संसद और राज्य विधानमंडलों पर लागू होता है। नगर निकायों पर इसके लागू होने का प्रावधान नहीं है। अगर राज्य सरकार चाहे तो नगर निगम, पालिकाओं से जुड़े कानून में संशोधन कर निर्वाचित निकाय प्रतिनिधियों के दल-बदलने पर अंकुश लगा सकती है। बीते वर्ष हिमाचल प्रदेश में नगर निगम कानून में संशोधन कर ऐसा किया जा चुका है।
हरियाणा सरकार ने नामंजूर किया प्रस्ताव
हेमंत ने बताया कि उन्होंने बीते वर्ष हरियाणा निर्वाचन आयोग को इस बारे में बार-बार लिखा। आयोग ने इस वर्ष 28 फरवरी को प्रदेश सरकार को प्रस्ताव भेजा था कि हरियाणा नगर पालिका कानून, 1973 और हरियाणा नगर निगम कानून, 1994 एवं उनके अंतर्गत बनाए गए निर्वाचन नियमों में उपयुक्त संशोधन कर राजनीतिक दल की परिभाषा डालने और नगर निकायों में निर्वाचित प्रतिनिधियों पर दल-बदल विरोधी कानून के प्रावधान लागू किए जाएं। जिसे सरकार ने नामंजूर कर दिया था। शहरी स्थानीय निकाय विभाग भी आयोग को पत्र भेज चुका है, जिसमें सरकार के मामले में विचार-विमर्श कर कानून में संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं होने की बात कही गई है।
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