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फतेहाबाद। जिले में इस बार पूरी तरह पुरानी भाजपा पर नई बीजेपी हावी नजर आई है। साल 2019 के विधानसभा चुनाव में पुराने कार्यकर्ता के रूप में सुभाष बराला को टोहाना से टिकट मिली थी। मगर इस बार तीनों ही विधानसभा सीटों पर बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से जुड़े नेताओं को टिकट मिली है।
गौरतलब है कि सुनीता दुग्गल 2014 में आईआरएस से सेवानिवृत्त होकर, दुड़ाराम साल 2019 के विधानसभा से कुछ दिन पहले और देवेंद्र सिंह बबली अब चार दिन पहले बीजेपी में शामिल हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि पुराने कार्यकर्ताओं ने टिकट की मांग नहीं की थी बल्कि फतेहाबाद में तो सालों से भाजपा का झंडा बुलंद करवाने वालों में टिकट पाने की होड़ मची हुई थी। इसके बावजूद फिर से विधायक दुड़ाराम पर ही पार्टी ने भरोसा जताते हुए पुराने कार्यकर्ताओं की उनकी जमीनी हकीकत से रूबरू करवा दिया है।
ये हैं फतेहाबाद में झंडा बुलंद करने वाले
फतेहाबाद में पुरानी भाजपा का झंडा बुलंद करने वालों में एग्रो इंडस्ट्रीज के चेयरमैन भारतभूषण मिड्ढा, हरकोफेड के चेयरमैन वेद फुलां, पशुपालन एवं डेयरी प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक राजपाल बैनीवाल, विधि प्रकोष्ठ से जुड़े प्रवीण जोड़ा, अनिल सिहाग, रामराज मेहता आदि नेता शामिल हैं। इनमें से कई नेता तो ऐसे हैं, जो 30 सालों से भी अधिक समय से भाजपा और संघ से जुड़े रहे हैं। साल 2014 में जब भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में आई तो भी इन नेताओं को कोई बड़ा लाभ नहीं मिल पाया। इसके बाद साल 2019 के चुनाव में भी इन नेताओं ने टिकट पाने का प्रयास किया, लेकिन ऐन मौके पर कांग्रेस छोड़कर आए दुड़ाराम रेस में आगे निकल गए। इस बार सभी नेता साम, दाम, दंड भेद की नीति अपना कर पुराने कार्यकर्ता को टिकट दिलाने की जुगत बिठा रहे थे। मगर बाजी दुड़ाराम ही मार गए।
रतिया व टोहाना में रही कई खामियां
भाजपा के पुराने संगठन में रतिया व टोहाना में कई खामियां रही हैं। दस साल सत्ता में रहने के बावजूद रतिया से कोई बड़ा नेता उभर नहीं पाया। साल 2014 में केंद्र में भाजपा की सत्ता होने के बाद भी रतिया से इनेलो के प्रो.रविंद्र बलियाला जीते थे। साल 2019 में लक्ष्मण नापा विधायक जरूर बने, लेकिन वह भी मुखर होकर संगठन में आवाज बुलंद नहीं कर पाए। जिलाध्यक्ष बलदेव ग्रोहा भी रतिया से होने के बावजूद बड़े नेताओं के सामने हाशिए पर ही नजर आए। टोहाना में तो सुभाष बराला के अलावा कोई दूसरा बड़ा लीडर ही नहीं बन पाया। इसी का नतीजा यह रहा कि पार्टी में बराला के बाद कोई ऐसा नेता नजर नहीं आया, जो अपने दम पर जिताऊ साबित हो सके। इसी वजह से देवेंद्र सिंह बबली के भाजपा का दामन थामते ही उन्हें टिकट मिल गई।
:: यह बात सही है कि पुरानी और नई भाजपा में बड़ा अंतर है। पुराने कार्यकर्ताओं को अभी भी तवज्जो नहीं मिल रही है। इसका एक कारण यह भी है कि लंबे समय तक भाजपा सहयोगी पार्टी ही रही है। पूरे प्रदेश में ही कुछ ही भाजपा नेता अपना जनाधार बना पाए हैं।
-देवेंद्र सिंह, राजनीति विशेषज्ञ
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