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संतोष रानी। संवाद – फोटो : संवाद
अंबाला सिटी। आधुनिक दौर में जहां विवाह पर होने वाले खर्च और कार्यक्रमों में बदलाव हुआ है, तो वहीं शादी समारोह में गाए जाने वाले गीत भी ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं। पहले विवाह से सात दिन पहले ही लोक गीत गाए जाते थे। अब सिर्फ एक ही दिन संगीत कार्यक्रम रखा जाता है और फिल्मी गाने स्पीकर पर लगाकर ही नाचते हैं। इससे न तो अगली पीढ़ी को लोक गीतों का पता चल पाता है और न ही पुरानी पीढ़ी की महिलाओं को गीत याद रहते हैं। इस कारण लोक गीतों का चलन धीरे-धीरे समाप्ति की कगार पर जा रहा है।
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बान से लेकर फेरों तक गाते थे गीत
अंबाला सिटी निवासी संतोष रानी ने बताया कि पहले के समय में सात दिनों तक बान रखे जाते थे और परिजनों के घर गीत गाकर भोज रखा जाता था। इतना ही नहीं लड़की को दिए जाने वाले शगुन का सामान के लिए भी अलग से दिन होता था। इस दिन भी महिलाएं गीत गाती थी लेकिन अब शगुन का सामान सीधे ही ससुराल भेज दिया जाता है। इसलिए सिर्फ एक या दो दिन में ही शादी समारोह समाप्त हो जाता है। फेरों पर भी महिलाएं गीत गाती थी। जो अब ग्रामीण स्तर पर ही रह गया है लेकिन शहरों में यह प्रथा समाप्त हो रही है।
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बिदाई के लिए भी डीजे पर बजता है गाना
अंबाला छावनी निवासी क्रांती देवी ने बताया कि पहले जब बेटी विदा होती थी तो बाबुल की दुआएं सहित कई लोक गीत गाए जाते थे। अब गीतों की जगह डीजे के गानों ने ले ली है। फेरों के समय भी दुल्हा पक्ष को हंसी- मजाक वाले तंज कसती थी। अब युवा पीढ़ी फेरों के समय वीडियो बनाने और फोटो लेने में ही व्यस्त रहती है। इसलिए बुजुर्ग भी चुप रहती हैं।