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शेखर गुप्ता का कॉलम: तमाम अटकलों को जन्म देता है ‘डीप स्टेट’ Politics & News

शेखर गुप्ता का कॉलम:  तमाम अटकलों को जन्म देता है ‘डीप स्टेट’ Politics & News

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16 मिनट पहले

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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

अभी 2025 के शुरुआती दिन ही हैं लेकिन लगता है कि ‘डीप स्टेट’ नाम का मुहावरा ‘पूरे साल का सबसे प्रचलित शब्द’ का खिताब जीत जाएगा। कोई भी गलत काम हो, उसे इस बदनाम मुहावरे के खाते में डाल दिया जाता है। वैसे, यह हमारी शासन-व्यवस्था का उतना ही हिस्सा है, जितना ‘शैलो स्टेट’ या ‘नॉन स्टेट’ हैं।

‘शैलो स्टेट’ वह व्यवस्था है, जो अनुभव, ज्ञान, साझा मूल्यों, परंपराओं जैसी किसी चीज को नहीं मानती। ‘नॉन स्टेट’ वह व्यवस्था है, जो किसी सम्प्रभु राज्य-व्यवस्था से सीधे जुड़ी नहीं होती। देखें ये किस तरह आपस में गुंथी हैं।

डिक्शनरी/विकीपीडिया में ‘डीप स्टेट’ की परिभाषा देते हुए कहा गया है : यह सत्ता का गुप्त और अनधिकृत नेटवर्क है, जो अपना एजेंडा लागू करवाने या मकसद पूरे करने के लिए राजनीतिक नेतृत्व से अलग रहते हुए काम करता है। इस संदर्भ में तीन घटनाओं का जिक्र करते हैं।

बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन। यह अचानक और नाटकीय रूप से सड़कों पर फूटी हिंसा, नेतृत्वविहीन आंदोलन के कारण हुआ। इसके लिए अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ (डीएस) को दोषी बताया गया। यह भी तोहमत लगाई गई कि इस तरह की कार्रवाई भारत में भी करने की साजिश थी।

इसके बाद, पिछले दो वर्षों में अदाणी समूह के खिलाफ किए गए खुलासों की सीरीज। इनमें से कई खुलासे हिंडनबर्ग जैसी रहस्यमय संस्था ने किए और वे जिस तरह सामने आए थे उसी तरह हवा भी हो गए। ‘ओसीसीआरपी’ (ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट) की वित्तीय मदद से चलने वाले संगठनों की ओर से भी खबरें आईं।

एक ‘आईसीआईजे’ (इंटरनेशनल कन्सोर्टियम ऑफ इनवेस्टिगेटिंग जर्नलिस्ट्स) भी है। इन दोनों को जॉर्ज सोरोस के ‘ओपन सोसाइटी फाउंडेशंस’ से मदद मिलती है। सोरोस को वामपंथी झुकाव वाले अराजकतावादी और शेयर तथा मुद्रा बाजार के खिलाड़ी के रूप में जाना जाता है।

उन्होंने 1992 में बैंक ऑफ इंग्लैंड और पाउंड को तोड़ा था और 1997 के वित्तीय संकट के दौरान पूर्वी एशिया के कई देशों को संकट में डाल दिया था। इन दोनों संगठनों ने अदाणी के खिलाफ खोजी खबरें जुटाने में मदद दी थी। तीसरा उदाहरण : कनाडा-अमेरिका में सिख उग्रवादियों की कार्रवाइयों के कारण भारत का दो बार मुश्किल से सामना। अमेरिकी मीडिया ने इन खबरों को काफी विस्तार से और लंबे समय तक जारी रखा। कहा जा रहा है कि इस सबको कोई संयोग नहीं माना जा सकता।

बांग्लादेश के मामले में क्या हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि वहां तख्तापलट अमेरिकी सरकार की निगरानी में काम कर रहे किसी ‘गुप्त और अनधिकृत’ समूह की करतूत थी? अगर शेख हसीना के पतन की साजिश सचमुच अमेरिकियों ने की, तो क्या किसी ‘डीएस’ ने इसे अपने तईं अंजाम दिया या बाइडेन शासन के मेल से?

साजिश का सिद्धांत पेश करने वाले ‘डीएस’ की जो परिभाषा देते हैं, उस पर यह खरा नहीं उतरेगा। तब यह सवाल उभरता है कि आप लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद के बारे में क्या कहेंगे? पाकिस्तानियों की तरह क्या आप उन्हें राज्यसत्ता से अलग संगठन कहेंगे? या ‘डीप स्टेट’ कहेंगे? दोनों परिभाषाएं पाकिस्तानी राज्यसत्ता को खंडन करने का आसान बहाना देंगी। लेकिन वे राज्यसत्ता के हिस्से हैं और भारत के लिए खतरनाक हैं।

अदाणी का मामला कुछ ज्यादा पेचीदा हो सकता है, क्योंकि हिंडनबर्ग और ‘ओसीसीआरपी’ की खबरों में अमेरिकी सरकार का हाथ होने के साफ संकेत नहीं मिलते। तब क्या ‘डीएस’ सक्रिय था? लेकिन यहां तो अमेरिका के न्याय विभाग और सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत और खतरनाक अभियोग लगाए हैं। अब यह बताइए कि हिंडनबर्ग और ‘ओसीसीआरपी’ सरकार से अलग काम कर रहे थे या मिलकर? या इसका उलटा हो रहा था?

और अंत में, भारत को निज्जर और पन्नू के मामलों में कनाडा-अमेरिका में हुई परेशानी की बात। इसे ‘डीएस’ का काम मुख्यतः इसलिए माना गया क्योंकि अमेरिका और कनाडा का मीडिया इन मामलों को लेकर खास तौर से सक्रिय था। उनकी सारी खबरें उनके ही खुफिया अधिकारियों द्वारा दी गई जानकारियों पर आधारित थीं।

वहीं, ‘शैलो स्टेट’ इसलिए उथले नहीं कहलाते कि वे कमजोर हैं, बल्कि इसलिए कि वे अस्थायी होते हैं। असली ताकत उनके ही हाथ में होती है। इनका इस्तेमाल सिर्फ इसलिए किया जाता है ताकि राजनीतिक नेतृत्व कहीं ज्यादा गहरे ‘डीप स्टेट’ को काबू में रख सके। ‘शैलो स्टेट’ जब कमजोर पड़ता है, तभी ‘डीप स्टेट’ अपना एजेंडा चलाता है।

यह हमने तब देखा था जब मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर दस्तखत किया था। इस संधि का अधिकतर विरोध उनके ही कार्यालय और उनके विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा लीक की गई जानकारियों पर आधारित था, जिसके पीछे अमेरिका-विरोधी भावनाओं का भी हाथ था। इसलिए परमाणु जवाबदेही कानून को इतना सख्त बना दिया गया कि पूरी संधि ही बेमानी हो गई।

और अंत में, ‘नॉन स्टेट’ का क्या? सम्प्रभु देश अपना मकसद पूरा करने के लिए ‘नॉन स्टेट’ यानी राज्यसता से असम्बद्ध किरदारों का इस्तेमाल करते हैं। ऑक्सफैम, ओमिड्यार, सोरोस तक तमाम ऐसे किरदारों ने जब राज्यसत्ता के साथ काम किया तब ताकतवर रहे। ‘यूएसएड’ क्या है? यह ‘डीएस’ नहीं हो सकता क्योंकि यह अमेरिकी राज्यसत्ता का अंग है। कांग्रेस से पूछेंगे तो वह कहेगी आरएसएस भाजपा का ‘डीप स्टेट’ है। यही समीकरण भाजपा भी यूपीए सरकार में सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बारे में पूछे जाने पर प्रस्तुत कर सकती है।

अराजकता फैलाने का आरोप लगता है ‘डीप स्टेट’ पर… सोरोस को वामपंथी झुकाव वाले अराजकतावादी और शेयर-मुद्रा बाजार के खिलाड़ी के रूप में जाना जाता है। उनके ओपन सोसाइटी फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित संगठनों ने अदाणी के खिलाफ खबरें जुटाने में मदद की थी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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