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- Pawan K. Verma’s Column The Reasons For Centuries Of Tragedies Lie In The Distinction Between Common People And VIPs
पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
15 फरवरी को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जो भयानक भगदड़ मची, उसे टाला जा सकता था। रेलगाड़ी की क्षमता सीमित थी; किस ट्रेन में चढ़ना है इसको लेकर यात्रियों में भ्रम था; और रेलवे, पुलिस और आयोजकों की भूल स्पष्ट थी। जो कुछ हुआ, वह योजना के अभाव और व्यवस्थागत-उपेक्षा के कारण हुआ। लेकिन इसकी जड़ में एक बात थी- साधारणजन के प्रति अधिकारियों का रवैया।
दो चीजें ऐसी हैं, जो हमारे डीएनए में इस हद तक रच-बस चुकी हैं कि उन्हें मिटाना नामुमकिन लगता है। पहला है, महत्वपूर्ण माने जाने वाले लोगों के प्रति जरूरत से ज्यादा आदर-भाव। और दूसरा- जो इस पहली बात से ही निकलता है- साधारणजन के प्रति हद्द दर्जे की उदासीनता, जो लगभग निष्ठुरता की सीमा तक चली जाती है। इसका परिणाम यह है कि किसी भी तरह की घटना- चाहे वह बड़ी हो या छोटी- के लिए हमारे पास एक हायरेर्कीयल एप्रोच होती है।
हम मानते हैं कि वीआईपी के लिए विशेष बंदोबस्त किया जाना चाहिए- जिसमें अकुशलता और कुप्रबंधन की कोई गुंजाइश न हो। अतिरिक्त अधिकारियों और संसाधनों की तैनाती सहित हर बिंदु का ध्यान रखा जाए।
इसका कारण भी पूरी तरह से स्वार्थपूर्ण है, इसका शक्तिशाली लोगों के प्रति सम्मान से कोई लेना-देना नहीं है। हमारा संगठनात्मक अति-उत्साह केवल भय से प्रेरित है। अगर वीआईपी कार्यक्रमों में कोई गड़बड़ी हो जाए तो उसके लिए तत्काल और दंडात्मक जवाबदेही तय होती है।
यह जोखिम नहीं उठाया जा सकता। लेकिन अगर साधारण व्यक्तियों की वैध जरूरतों की भी उपेक्षा की जाए या उनकी पूर्ति न की जाए तो इसमें लगभग न के बराबर जोखिम होता है, या होता ही नहीं। कोई हादसा होने पर ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? सरकार एक समिति गठित कर देगी, जैसा कि उसने हाल के मामले में किया भी है। रिपोर्ट आने में महीनों या उससे भी अधिक समय लग सकता है।
इस बीच, सरकार स्वयं को दोषमुक्त करने के लिए पर्याप्त तरीके खोज लेगी। और कुछ नहीं तो राष्ट्र-विरोधियों पर हादसे का षड्यंत्र रचने का आरोप लगा दिया जाएगा, या आलोचना करने वाले विपक्ष पर मुद्दे का ‘राजनीतिकरण’ करने का इलजाम मढ़ दिया जाएगा। समय के साथ बात आई-गई हो जाएगी।
रवैये की यह गड़बड़ी ही दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची त्रासदपूर्ण अराजकता और जानमाल की हानि का मुख्य कारण थी। भारत एक अत्यन्त धार्मिक देश है। कुम्भ प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार आयोजित होता है। यह स्वाभाविक है कि करोड़ों हिंदू इस दौरान गंगा में पवित्र डुबकी लगाना चाहेंगे।
वास्तव में, केंद्र और यूपी सरकार ने इस आयोजन के प्रचार पर काफी खर्च किया तथा लोगों से इसमें भाग लेने का आग्रह भी किया। लेकिन तीर्थयात्रियों के हुजूम के प्रबंधन के लिए अधिक संगठनात्मक दक्षता दिखाने की भी आवश्यकता थी। और ऐसा नहीं है कि वह दिखाई नहीं गई। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निश्चित ही एक कुशल प्रशासक हैं। लेकिन जाहिर है, वह सब पर्याप्त नहीं था और निश्चित रूप से समानतापूर्ण नहीं था।
यह बात तब स्पष्ट हो गई थी, जब 29 जनवरी को प्रयागराज में मौनी अमावस्या के दौरान भगदड़ में 30 लोगों की मौत हो गई और 90 लोग घायल हो गए। ये आधिकारिक आंकड़े हैं; अनौपचारिक अनुमान इससे भी अधिक है। मृतकों की पहचान में कई दिन लग गए।
रिपोर्टों से पता चलता है कि निकास और प्रवेश द्वार के बीच अपेक्षित अंतर समाप्त हो गया था; घाटों की निगरानी के लिए पुलिसकर्मियों की संख्या आवश्यकता से काफी कम थी; और किसी ने भी भीड़ पर नजर रखने के लिए सीसीटीवी कैमरों सहित नवीनतम तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया। खबरों के मुताबिक, उसी रात को झूंसी इलाके में दूसरी भगदड़ भी मची थी।
इसकी तुलना वीवीआईपी लोगों के पवित्र-स्नान के दृश्यों से कीजिए, जिनमें सभी व्यवस्थाएं उत्तम होती हैं, आसपास कोई भीड़ नहीं होती, हर तरफ पुलिस अधिकारी तैनात होते हैं; स्पीड बोट उपलब्ध कराई जाती हैं। उनके लिए विशेष घाट तक निर्धारित किए जाते हैं। मीडियाकर्मियों को आस्था के इस प्रदर्शन को कवर करने के लिए पहुंच प्रदान की जाती है।
जब तक इस रवैये में बदलाव नहीं आएगा, हमारे देश में कुछ नहीं बदलने वाला। साधारण व्यक्ति त्रासदियों में पिसते रहेंगे, जबकि वीवीआईपी के लिए दोषरहित व्यवस्थाएं उपलब्ध होती रहेंगी। तमाम जरूरी सवालों के जवाब आमजन और वीवीआईपी के प्रति अधिकारियों के रवैये की खाई में कहीं दबे रहेंगे।
जब तक हमारे रवैये में बदलाव नहीं आएगा, देश में कुछ नहीं बदलने वाला। साधारण व्यक्ति त्रासदियों में पिसते रहेंगे, जबकि वीवीआईपी के लिए दोषरहित व्यवस्थाएं उपलब्ध होती रहेंगी। तमाम जरूरी सवाल एक खाई में दबे रहेंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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पवन के. वर्मा का कॉलम: आमजन बनाम वीआईपी के भेद में हैं त्रासदियों की वजहें