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भारत के आर्थिक इंजन की रफ्तार धीमी पड़ रही है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान मध्यवर्ग को उठाना पड़ रहा है। यह केवल एक बुरी तिमाही का नतीजा नहीं है। आरबीआई समेत दुनियाभर के संगठन भारत की आर्थिक वृद्धि में कमी का अनुमान लगा रहे हैं। फिलहाल इस स्थिति के पलटने के कम ही संकेत हैं। ‘भारत का समय आ गया है’ जैसी बुलंद उम्मीद अब ढीली पड़ रही है। जिसे हम ‘हवा’ कहते हैं, वह बदल गई है। करोड़पति लोग विदेश में जमीन-जायदाद खरीद रहे हैं या इसके साथ मिलने वाला दीर्घकालिक वीजा हासिल कर रहे हैं। भारत के करोड़पति कितनी संख्या में विदेश में जाकर बस रहे हैं, इसके पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध हैं। ‘हेनले प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन रिपोर्ट’ के अनुसार पिछले दो साल से ऐसे लोगों की संख्या औसतन 5,000 रही है। इन अमीरों को आप कभी शिकायत करते नहीं सुनेंगे। ये इतने स्मार्ट हैं कि इस तरह के ‘पंगे’ नहीं लेते। ये अपने पलायन की दिशा से अपना मत जाहिर करते हैं। तथ्य यह है कि इनके पास ‘सरप्लस’ है, और ये भारत में निवेश करने की जगह विदेश का रुख कर रहे हैं। इनमें से कई इसलिए देश छोड़ रहे हैं क्योंकि विदेश में सुरक्षा है और गुमनाम रहने की सुविधा है। और, इनसे भी जो ज्यादा अमीर हैं वे क्या कर रहे हैं? आइए, हम भाग रहे करोड़पतियों से छलांग लगाकर अरबपतियों और खासकर डॉलर अरबपतियों की बात करें। ये सारे नहीं बल्कि इनमें से अधिकतर तो उद्यमी हैं। फिर भी इनकी संख्या बहुत बड़ी नहीं है। ‘फोर्ब्स’ के आंकड़ों के अनुसार ये केवल 200 हैं। करोड़पति अगर चुपचाप देश से जा रहे हैं, तो अरबपति तेज आवाज में सरकार की तारीफ कर रहे हैं और इस तरह के मंत्रों का जाप कर रहे हैं कि ‘हमारी अर्थव्यवस्था जल्द ही सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था बनने जा रही है’, कि यह ‘दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज करा रही विशाल अर्थव्यवस्था है’। ये अरबपति देश में टिके हुए हैं। बस इतना है कि ये देश में निवेश नहीं कर रहे हैं, इसलिए नहीं कि इन्हें देश से प्यार नहीं है। बात सिर्फ इतनी है कि स्मार्ट उद्यमियों को मांग बढ़ती नहीं दिख रही है तो वे कहां निवेश करें, और क्यों करें? यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे शेयरधारकों से मिले ‘रिजर्व’ को ऐसी परिसंपत्तियों पर खर्च करें, जिन्हें कोई इस्तेमाल न करे और जिनमें बने सामान को कोई न खरीदे। यह हमें समस्या की जड़ तक पहुंचाता है कि मांग क्यों गिर गई है? ज्यादातर मांग देश की सबसे बड़ी उपभोक्ता आबादी यानी मध्यवर्ग से आती है। इस वर्ग की परिभाषा भी जटिल है, लेकिन हम यह मानकर चलें कि मध्यवर्ग का व्यक्ति वह है, जिसके पास खानपान, बच्चों की शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और जरूरी आवाजाही पर खर्च करने के बाद कुछ पैसा बचता है, जिसे वह किसी चीज पर खर्च कर सके। सालाना 12 लाख से लेकर 5 करोड़ तक कमाने वाला यह विशाल वर्ग आज हाथ बांधकर बैठा है और परेशान है। वह इतना अमीर नहीं है कि विदेश जा बसे, वह भी अपनी संपत्ति के साथ, जिस पर भारी टैक्स देना पड़ता है और जिसके निवेशों का मूल्य भी पिछले एक वर्ष में गिर गया है। इनमें से जो ज्यादा अमीर हैं यानी 2 करोड़ से ज्यादा कमा रहे हैं, वे अपनी आय पर प्रतिशत के लिहाज से टॉप कॉर्पोरेटों या अरबपतियों के मुकाबले करीब दोगुना टैक्स भर रहे हैं। भारत की गाथा बनाने वाले ये लोग वे हैं, जो महत्वाकांक्षी नव-धनाढ्य हैं और जिन्होंने अपने बूते अपनी तकदीर चमकाई है, जो आम तौर पर पहली पीढ़ी वाले हैं। आज वे मानो एक साथ कई गोले दागने वाले रॉकेट लॉन्चर के हमले झेल रहे हैं। फ्यूल की कीमत चढ़ी हुई है, इनकम टैक्स कमर तोड़ रहा है, और इन्हें आप यह शिकायत करते सुन सकते हैं कि वे जो टैक्स भर रहे हैं, उसका सरकार उचित लाभ नहीं दे रही है। म्यूचुअल फंड, इक्विटी, जायदाद पर कैपिटल गेन और बॉन्डों पर टैक्स में मिलने वाली छूट हवा हो रही है। उन्हें उन चीजों की बढ़ती लागत का झटका झेलना पड़ रहा है, जिनकी गिनती महंगाई की सुर्खियां बनाने में नहीं की जाती। उदाहरण के लिए, निजी संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाने की बढ़ती लागत को ही ले लीजिए। सो, ये लोग परेशान हैं, खरीदारी टाल रहे हैं; और मांग के लुप्त होने के लिए मुख्यतः इन्हें जिम्मेदार कहा जा सकता है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के लोग साल में 2.5 करोड़ कारें खरीद रहे हैं, जो कई देशों की आबादी से ज्यादा है। लेकिन जब यह देखेंगे कि कार कौन खरीद रहा है तो पता चलेगा कि मध्यवर्ग कितना थका हुआ है। अनबिकी कम कीमती छोटी कारों की लाइन लग रही है, जबकि बड़ी महंगी कारों के लिए वेटिंग लिस्ट लग रही है। अपने इर्द-गिर्द जिस तरह की नई सियासत चल रही है उससे मध्यवर्ग नाराज है। यह मध्यवर्ग टैक्स के रूप में जो पैसे भर रहा है, उसे गरीबों के वोट खरीदने पर दल- जिनमें अब भाजपा सबसे आगे हो गई है- जिस तरह लुटा रहे हैं, उससे क्रुद्ध है। पिछले 11 वर्षों में भाजपा सरकारें 20 ट्रिलियन रु. बांट चुकी हैं, जिनमें मुफ्त अनाजों की लागत शामिल है। रेवड़ियों वाली मालगाड़ी अब ‘डबल इंजिन’ के बूते दौड़ रही है। मध्यवर्ग भाजपा का मुखर समर्थक है। भाजपा इस वर्ग का समर्थन अपने लिए उसी तरह तय मानकर चल सकती है, जैसे कांग्रेस और ‘सेकुलर’ पार्टियां मुसलमानों का समर्थन अपने लिए निश्चित मानती हैं। मध्यवर्ग शिकायत करता रहेगा मगर वफादार भी बना रहेगा, क्योंकि वह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की राजनीति को बहुत पसंद करता है। सौगातें बांटी जा रही हैं…
मूल रॉबिनहुड तो अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटता था, लेकिन वर्तमान में सरकारें मध्यवर्ग को निचोड़कर गरीबों में बांट रही हैं। रेवड़ियां बांटी जा रही हैं। जो सुपर अमीर हैं, वे अब तक के सबसे कम टैक्स देने के मजे ले रहे हैं। और करोड़पति देश छोड़कर जा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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