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नवनीत गुर्जर का कॉलम: जेल में रहकर चुनाव लड़ने की छूट क्यों? Politics & News

नवनीत गुर्जर का कॉलम:  जेल में रहकर चुनाव लड़ने की छूट क्यों? Politics & News

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  • Navneet Gurjar’s Column Why Is There Exemption To Contest Elections While Being In Jail?

6 मिनट पहले

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नवनीत गुर्जर

आम आदमी तो जाने कब से बंट चुका है खांचों में। उसकी रातें लम्बी हैं। सांसें सिकुड़ रही हैं। जैसे कोई होली में अभ्रक छिड़क रहा हो! ये सर्दियां हैं। सूखे पत्ते आवाज की नकलें करते रहते हैं। इस बीच एक बुलंद आवाज आई है। सुप्रीम कोर्ट के एक जज की तरफ से।

आवाज, दबंग भी। आक्रामक भी। बेखौफ भी। आवाज क्या एक चुभता हुआ सवाल है। …कि जेल में रहकर किसी को चुनाव लड़ने की इजाजत क्यों होनी चाहिए। सही है- बरी हो जाइए। बेदाग साबित हो जाइए। फिर बाहर आकर लड़िए। जमाने से। अपनों से। परायों से। चाहो तो चुनाव भी। लेकिन जेल में रहकर चुनाव लड़ना कौन-सी तुक है भला?

अब तक जेल में रहकर चुनाव लड़ने और जीतने वालों की लम्बी फेहरिस्त है। सिमरनजीत सिंह मान और जॉर्ज फर्नांडीस से लेकर आजम खान और मुख्तार अंसारी तक! आप राजनीतिक कैदी हैं या किसी और कारण से जेल में हैं, चुनाव तभी लड़िए, जब उस आरोप से बरी हो जाएं।

आखिर अदालत ने आपको जेल भेजा है तो कोई तो कसूर रहा ही होगा! जेल से बाहर आने तक का धैर्य क्यों नहीं है? …और वे कौन पार्टियां हैं, जो जेल में बैठे व्यक्ति को चुनाव का टिकट दे आती हैं? जेल में रहकर निर्दलीय चुनाव लड़ने पर तो बंदिश होनी ही चाहिए, राजनीतिक दलों को भी सख्त हिदायत मिलनी चाहिए कि वे जेल में रह रहे किसी व्यक्ति को टिकट न दें। लेकिन ये कैसे होगा?

कानून बनाने की अगर जरूरत है तो वह तो संसद को बनाना है। संसद में बैठे हैं हमारे नेता। सुप्रीम कोर्ट से उठी आवाज उन नेताओं के कानों तक कब पहुंचेगी? पहुंचेगी भी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। ऐसे और इससे मिलते-जुलते कई मामले हैं, जिन पर अलग-अलग स्तरों पर आवाज उठाई जा चुकी है, लेकिन आज तक कोई हल नहीं निकल पाया। मुफ्त की रेवड़ी बांटने को लेकर एक बार सुप्रीम कोर्ट सख्त हो चुका है। राजनीतिक दलों से सुझाव भी मांगे गए थे। यह भी पूछा गया था कि आखिर मुफ्त की रेवड़ी की परिभाषा क्या हो? हुआ कुछ नहीं।

कोई राजनीतिक दल इस बारे में गंभीर ही नहीं है। जिस राज्य के चुनाव पर नजर दौड़ाइए, मुफ्त की रेवड़ियों के भरोसे ही जीत सुनिश्चित की जा रही है। सभी राजनीतिक दल यह कर रहे हैं। धड़ल्ले से। चुनाव खर्च को लेकर भी कई बार बहस हो चुकी है, लेकिन कोई अंकुश नहीं लग सका। आधिकारिक रूप से तमाम प्रत्याशी अपना हिसाब चुनाव आयोग को दे देते हैं लेकिन असल में चुनाव का खर्च, उस हिसाब से कई सौ गुना ज्यादा होता है। कोई देखने वाला नहीं है।

एक टीएन शेषन ने सख्ती दिखाई थी। उनके मुख्य चुनाव आयुक्त रहते चीजें सुधरी भी थीं। लेकिन उसके बाद तो सख्ती के नाम पर केवल भाषण रह गए। …और कुछ नहीं। कुछ भी नहीं!

तीसरा मुद्दा है बाहुबलियों और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने का। यहां तो हालत और भी बुरी है। चुन-चुनकर ऐसे लोगों को टिकट दिए जाते हैं, ताकि जीत सुनिश्चित हो सके। कुछ दबंग तो निर्दलीय भी जीत जाते हैं। वे मतदाताओं को डरा- धमकाकर उनके वोट हासिल कर लेते हैं।

एक बार मध्य प्रदेश में एक निर्दलीय प्रत्याशी का चुनाव चिह्न हाथी था। उसने चुनाव प्रचार के दौरान नारा दिया था- ‘मोहर लगाओ हाथी पर, वरना गोली खाओ छाती पर… और लाश मिलेगी घाटी पर…’ हैरत की बात है कि वो चुनाव जीत भी गया था!

आप राजनीतिक कैदी हैं या किसी और कारण से जेल में हैं, चुनाव तभी लड़िए, जब उस आरोप से बरी हो जाएं। आखिर अदालत ने आपको जेल भेजा है तो कोई तो कसूर रहा ही होगा! जेल से बाहर आने तक का धैर्य क्यों नहीं है?

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