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पवन के. वर्मा का कॉलम: अपनी मां ‘राजमहल’ के नाम ‘शीशमहल’ का एक पत्र… Politics & News

पवन के. वर्मा का कॉलम:  अपनी मां ‘राजमहल’ के नाम ‘शीशमहल’ का एक पत्र… Politics & News

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6 घंटे पहले

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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक

प्रिय मां, हर कोई हमारे खिलाफ क्यों है? हमारा अपराध क्या है? आपसे सीख लेकर मैंने अपने ग्राहकों को विलासिता, वैभव और हर तरह की सुविधा देने में उत्कृष्टता हासिल करने की कोशिश की। यह हमारे लिए गर्व की बात थी कि हमारे शासक फिजूलखर्ची करते थे और उनके पास धन-दौलत की कमी न थी।

आपको याद होगा कि हमने दो अलग-अलग तरह के संरक्षकों की सेवा की। पहले वाले चाहते थे कि हम सम्पत्ति के प्रदर्शन के लिए उपलब्ध रहें। उन्हें इस बात पर गर्व था कि हम कैसे दिखते हैं, हम पर कितना खर्च किया गया था, हम कितने भव्य लगते थे और हम कितनी ताकत दिखाते थे।

इस नुमाइश से उन्हें ताकत और गर्व का अहसास होता था। इसका वे भरपूर मजा तो लेते ही थे, यह प्रजा को अपने प्रभाव से मुग्ध करने और उनसे निरंतर सम्मान पाने के रणनीतिक लक्ष्य को भी पूरा करता था। चक्रवर्ती सम्राटों, सुल्तानों और राजे-महाराजाओं को यह करना पसंद था। बाद में फिरंगी भी इस खेल में माहिर हो गए।

दूसरी तरह के हमारे संरक्षक ऐसी खुली नुमाइश के हामी नहीं थे। वे हमारी भव्यता चाहते थे, बशर्ते दूसरों को पता न चले। उनकी सम्पत्ति प्रदर्शन के लिए नहीं थी, और अजीब बात यह है कि जिस हद तक वे इसे छिपा सकते थे, उसी से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित होती थी। आप और मैं इस तरह के लोगों से खुश थे।

मां, मुझे बहुत खुशी होती है, जब मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं जिन्हें हमारी वजह से रोजगार मिला। मुझे अभी भी हमारा निर्माण करने वाले लोगों की घोर गरीबी याद है। वे खुद झुग्गियों में रहते थे, जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं। उन्हें काम की सख्त दरकार थी।

उनमें से कुछ कुशल कारीगर होने के बावजूद फाकाकशी के हालात में जीते थे। हमारा निर्माण पूरा होने के बाद भी नौकरों और कर्मचारियों के लम्बे-चौड़े लवाजमे ने हमारी मदद से अपना गुजारा किया : द्वारपाल, रसोइया, खिदमतगार, माली, सफाईकर्मी, साईस, वाहन चालक- यह अनुचरों की पूरी दुनिया थी, जिनमें से कुछ तो पीढ़ियों तक हमारी सेवा करते रहे। आखिर, दिल्ली में लाल किला बनने में दस साल लगे थे, जिसमें हर दिन हजारों लोग काम करते थे। राष्ट्रपति भवन बनने में 17 साल लगे थे।

फिर क्या कारण है कि हमारे ये संरक्षक ही- जो हमसे मिलने वाली सुख-सुविधाओं से प्यार करते हैं- आज हमारे खिलाफ हो गए हैं? ‘शीशमहल’ और ‘राजमहल’ शब्द राजनीतिक विरोधियों पर हमला करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जैसे कि उनमें रहने वाले लोग अपराधी हों।

दु:ख की बात तो यह है कि पाखंड देखें : जो हमें गाली देते हैं, वे भी मन ही मन हमसे प्यार करते हैं। हमारे शासकों के घर अतीत के महलों से कम शानदार नहीं हैं। वे इन सुख-सुविधाओं के बिना लोगों की सेवा नहीं कर सकते, इसके बावजूद वे दूसरों की इन्हीं दुर्गुणों के लिए आलोचना करते हैं।

ताकतवर लोग यह दावा करके ‘आम आदमी’ को मूर्ख बनाना चाहते हैं कि वे भी उन्हीं की तरह रहते हैं। वे विलासता के प्रति अपने प्रेम को खादी के आवरण से छिपा देना चाहते हैं। कभी-कभी तो लगता है, मां, कि आपको और मुझे खादी के बहुत बड़े कम्बल खरीदकर ओढ़ लेने चाहिए, जो एकांत में हमारा सुख भोगकर सार्वजनिक रूप से हमारी निंदा करने वालों की जीवनशैली को छिपा सकें। लेकिन पब्लिक सब जानती है। लोग जानते हैं कि चुनावों के समय हम पर बरसाई जाने वाली लानतें केवल सियासत है; जबकि आज के आलीशान हम्मामों में सब नंगे हैं।

आज के नेताओं को कैसे समझाएं कि जो खुद शीशमहलों में रहते हैं, उन्हें दूसरों के राजमहलों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। क्योंकि सच तो यह है कि राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद भला कौन ‘आम आदमी’ बनकर जीना चाहता है?

मुझे जरूर बताना कि आप क्या सोचती हो, मां। आपकी प्यारी बेटी।

नेताओं को कैसे समझाएं कि जो खुद शीशमहलों में रहते हैं, उन्हें दूसरों के राजमहलों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। क्योंकि सच तो यह है कि सत्ता हासिल करने के बाद भला कौन ‘आम आदमी’ बनकर जीना चाहता है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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