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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
बुधवार को मेरी गाड़ी राजस्थान के भीलवाड़ा में दो मध्यम आकार की होटलों के मुख्य द्वार के सामने रुकी, जहां सुरक्षाकर्मियों ने नियमों का हवाला देते हुए हमारे वाहन को पोर्च के अंदर ले जाने से मना कर दिया। जब मेरे ड्राइवर ने पूछा कि 200 मीटर से ज्यादा दूर तक हम लगेज कैसे लेकर जाएं, तो चौकीदार ने कहा- अगर वो लोग आकर नहीं ले जाते तो आप ही ले जाइए।
पार्किंग एरिया खाली था और होटल में कोई दूसरी गाड़ी नहीं थी। और आपको क्या लगता है कि उस कड़कड़ाती ठंड में सुरक्षाकर्मी क्या कर रहे थे? वे खुले आसमान के नीचे लकड़ियां जलाकर आग ताप रहे थे। बाहर का तापमान 11 डिग्री सेल्सियस के आसपास था, जो धीरे-धीरे 9 डिग्री की ओर बढ़ रहा था। गाड़ी को दूसरे होटल ले जाया गया। रास्ते में ड्राइवर ने कहा, सर, ये लोग हमेशा ऐसे ही होते हैं, क्योंकि वे 12-14 घंटे की शिफ्ट में काम करते हैं, और उन्हें बहुत कम वेतन मिलता है।
इसने मुझे महाराष्ट्र के कोल्हापुर के एक 32 वर्षीय अनाथ व्यक्ति रामू काले की याद दिला दी, जिन्होंने अपना जीवनयापन छोटे-मोटे कार्यों से शुरू किया था। किसी भी गरीब की तरह- जो परिवार चलाने के खर्चों के बारे में सोचे बिना ब्याह कर लेता है- उन्होंने भी शादी की और उनके चार बच्चे हुए।
उन्होंने कचरा और कबाड़ इकट्ठा किया, ट्रैफिक सिग्नलों पर फूल और दूसरी चीजें बेचीं, और मजदूरी भी की। वे कभी 100 से 200 रुपए कमाते थे और कभी कुछ नहीं। इसलिए उनके श्रम का ROI (रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट) उनके छह लोगों के परिवार के भरण-पोषण के लिए बहुत कम था।
ज्यादातर लोगों की तरह, उन्होंने भी पूजा-पाठ किया और तिरुपति-तिरुमलै में बालाजी मंदिर की तीर्थ यात्रा पर गए। वहां उन्होंने देखा कि कुछ लोग मैटेलिक पेंट्स में रंगे खड़े थे और उनके हाथ में कुछ प्रॉप्स थे। उत्सुकतावश, उन्होंने पूछा कि वे क्या कर रहे हैं और उस प्रदर्शन-कला के बारे में जानकारी ली। सपनों से भरे मन और उम्मीदों से भरे दिल के साथ वे परिवार सहित पुणे लौट आए।
लेकिन वो यहीं नहीं रुके। उन्होंने सबसे पहले पुणे के बाजार का सर्वे किया। वो उन जगहों के बारे में जानना चाहते थे, जहां लोगों की आवाजाही अधिक होती है। फिर उन इलाकों में सड़क पर प्रदर्शन करने वालों के प्रति विक्रेताओं का रवैया देखा।
फिर थोक में बॉडी पेंट कहां से मिलेगा, यह पता लगाया (उन्होंने इसे तेलंगाना से खरीदा, जहां यह सबसे सस्ता है)। फिर उन्होंने महात्मा गांधी की प्रतिकृति बनने का फैसला किया। स्क्रैप से गोल चश्मा बनाया। हर सुबह एक साधारण नाश्ते के बाद, वे नहाते हैं, धोती पहनते हैं, सिर मुंडवाते हैं, खुद को रंगते हैं और राष्ट्रपिता बन जाते हैं।
आज वे दान के लिए अपने साथ बकेट रखते हैं, और व्यस्त फर्ग्यूसन कॉलेज रोड के किनारे अलग-अलग जगहों पर खड़े रहते हैं। यहां खाने-पीने और मौज-मस्ती के लिए ज्यादातर युवाओं की आवाजाही रहती है। लोग उनके साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं, पोज देते हैं, लेकिन विरले ही कोई उनसे बात करता है।
कुछ लोग नकद देते हैं। लेकिन कई लोग इसलिए बिना कुछ दिए लौट जाते हैं क्योंकि उनके पास छुट्टे नहीं होते। उनके दोस्तों ने उनके लिए एक बैंक खाता और यूपीआई अकाउंट खोलने में मदद की, जहां कुछ लोग पैसा ट्रांसफर कर देते हैं। इस तरह से वे रोज 500-600 रुपए कमा लेते हैं और अच्छा दिन हो तो इससे भी ज्यादा। लेकिन वे दोपहर 2 से रात 11 बजे तक के अपने इस समय का सख्ती से पालन करते हैं।
जीवन में इस इनोवेशन ने उन्हें अपने सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए अधिक कमाने के लिए प्रेरित किया ताकि वे नौकरी कर सकें और बेहतर जीवन जी सकें। इसके लिए उन्होंने एक कमरा किराए पर लिया और अब पहली बार इस परिवार के सिर पर एक छत है।
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एन. रघुरामन का कॉलम: ROI से ROTI तक के रास्ते में जीवन बेहतर बनता है