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- Raghuram Rajan’s Column Now Is The Time To Export High skilled Services
रघुराम राजन, आरबीआई के पूर्व गवर्नर
एक तरफ जहां डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी से ट्रेड-वॉर छिड़ने की आशंकाएं बढ़ रही हैं, वहीं हमें विकासशील देशों को नहीं भूलना चाहिए। मध्यम आय की स्थिति हासिल करने के लिए खेती से आगे बढ़ने का उनका अभी तक का आजमाया हुआ तरीका लो-स्किल्ड और निर्यात को नजर में रखकर की जाने वाली मैन्युफैक्चरिंग ही रही है। लेकिन अब वे क्या करेंगे?
उनके लिए अच्छी खबर यह है कि चीजें उम्मीद से बेहतर हो सकती हैं, खासकर अगर वे विकास के वैकल्पिक रास्तों को चुनें। अतीत में, गरीब देशों ने मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात के जरिए विकास किया था।
विदेशी मांग ने उनके उत्पादकों को अपना काम बढ़ाने का अवसर दिया। कृषि में घटती उत्पादकता का मतलब भी यही था कि कम वेतन पर लो-स्किल्ड कामगारों को कारखानों में काम के लिए आकर्षित किया जा सकता है।
इन दोनों फैक्टर्स के मेल ने इन देशों के उत्पादन को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बना दिया था, भले ही उनके कामगारों की उत्पादकता तुलनात्मक रूप से कम हो।
जैसे-जैसे फर्मों को निर्यात से लाभ हुआ, उन्होंने श्रमिकों को अधिक उत्पादक बनाने के लिए बेहतर उपकरणों में निवेश किया। वेतन बढ़ा तो कामगार अपने और अपने बच्चों के लिए बेहतर स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य-देखभाल का खर्च उठाने में सक्षम हुए। फर्मों ने अधिक कर भी चुकाए, जिससे सरकार को बेहतर बुनियादी ढांचे और सेवाओं में निवेश करने की राशि मिली।
अब फर्में भी अधिक परिष्कृत और हायर वैल्यू-एडेड उत्पाद बना सकती थीं। इस तरह से एक चक्र शुरू हुआ। चीन ने यही किया था। केवल चार दशकों के भीतर उसने पुर्जों की असेम्बलिंग से लेकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ईवी बनाने तक की यात्रा तय कर ली।
लेकिन आज आप किसी भी विकासशील देश के सेलफोन असेम्बलिंग प्लांट पर जाएं तो देख सकेंगे कि यह रास्ता अब अधिक कठिन हो गया है। आपको अब मदरबोर्ड पर पुर्जे जोड़ने के लिए कामगारों की कतारें नजर नहीं आएंगी, क्योंकि माइक्रो-सर्किटरी अब मनुष्य के बस का रोग नहीं। इसके बजाय मशीनों की कतारें हैं, जिन पर कुशल श्रमिक काम करते हैं।
अकुशल श्रमिक मुख्य रूप से मशीनों के बीच पुर्जे लाते, ले जाते हैं या कारखाने को साफ रखते हैं। ये काम भी जल्द ही मशीनें करने लगेंगी। अब तो कपड़े या जूते सिलने वाले श्रमिकों की कतारों वाली फैक्ट्रियां भी दुर्लभ होती जा रही हैं। मैन्युफैक्चरिंग अब पहले की तुलना में कम लोगों को काम दे रही है।
अतीत में, विकासशील देश अधिक परिष्कृत मैन्युफैक्चरिंग की ओर तेजी से बढ़े थे, जिससे लो-स्किल्ड मैन्युफैक्चरिंग उन गरीब देशों के लिए रह गई, जिन्होंने निर्यात-आधारित मैन्युफैक्चरिंग की राह पर आगे बढ़ना शुरू ही किया था।
लेकिन अब, चीन जैसे देश के पास सभी तरह की मैन्युफैक्चरिंग के लिए पर्याप्त कामगार हैं। कम कुशल चीनी श्रमिक वस्त्र उद्योग में बांग्लादेशियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, वहीं ईवी में उनके कुशल श्रमिकों की होड़ आज जर्मनों से है।
मैन्युफैक्चरिंग में श्रम के घटते महत्व को देखते हुए औद्योगिक देशों को अब यह विश्वास हो गया है कि वे इस क्षेत्र में फिर से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। उनके पास पहले से ही कुशल श्रमिक हैं, जो मशीनों को संभाल सकते हैं। उत्पादन को फिर से पटरी पर लाने के लिए वे संरक्षणवादी तौर-तरीके अख्तियार कर रहे हैं।
इन ट्रेंड्स को अगर एक साथ देखें- ऑटोमेशन, चीन जैसे स्थापित खिलाड़ी से प्रतिस्पर्धा, नए सिरे से संरक्षणवाद- तो आप पाएंगे कि इन्होंने गरीब देशों के लिए निर्यात-आधारित मैन्युफैक्चरिंग को कठिन बना दिया है। लेकिन जहां ट्रेड-वॉर उनके कमोडिटी निर्यात को नुकसान पहुंचाएगा, वहीं यह पहले की तरह चिंताजनक नहीं होगा।
अगर यह उन्हें वैकल्पिक रास्तों की तलाश के लिए मजबूर करता है तो इसमें उनके लिए उम्मीद की किरण हो सकती है। यह हाई-स्किल्ड सेवाओं के निर्यात से हो सकता है। 2023 में, सेवा-क्षेत्रों में वैश्विक-व्यापार 5% बढ़ा, जबकि व्यापारिक कारोबार में 1.2% की कमी आई। कोविड के दौरान टेक्नोलॉजी में सुधार ने रिमोट-वर्क को सक्षम बनाया।
नतीजतन, बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज कहीं से भी अपने ग्राहकों की सेवा कर रही हैं। भारत में, जेपी मॉर्गन से लेकर क्वालकॉम तक वैश्विक क्षमता केंद्रों (ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स) के लिए प्रतिभाशाली स्नातकों को नियुक्त कर रही हैं। इनमें इंजीनियर, आर्किटेक्ट, सलाहकार और वकील वैसी डिजाइनें, अनुबंध, सामग्री और सॉफ्टवेयर बनाते हैं, जो दुनिया में बेची जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं में कारगर हैं।
आज हर विकासशील देश में एक छोटा लेकिन हाईली-स्किल्ड वर्ग है, जो विकसित देशों के उच्च वेतन की तुलना में किफायती दरों पर सेवाओं का निर्यात करता है। ऐसी नौकरियां लो-स्किल्ड मैन्युफैक्चरिंग की तुलना में बहुत अधिक घरेलू मूल्य जोड़ती हैं और देश के विदेशी-विनिमय में भी योगदान देती हैं। अच्छी तनख्वाह पाने वाला ऐसा कोई कर्मचारी अपने उपभोग के जरिए स्थानीय रोजगार भी पैदा कर सकता है।
जैसे-जैसे कुशल सर्विस-वर्करों को स्थिर रोजगार मिलेगा, वे न केवल एलीट मांगों को पूरा करेंगे, बल्कि एक-दूसरे की मांगों की भी पूर्ति करेंगे। इसके लिए लेबर-पूल की गुणवत्ता में सुधार जरूरी है। इंजीनियरिंग ग्रैजुएट्स को अपनी फील्ड की बुनियादी समझ तो होती ही है, थोड़ी-सी ट्रेनिंग और अपग्रेडिंग से उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जरूरतों के अनुरूप तैयार किया जा सकता है।
दूसरी स्किल्स में भी निवेश…

विकासशील देशों को मैन्युफैक्चरिंग को छोड़ने की जरूरत नहीं है, लेकिन उन्हें विकास के लिए दूसरे रास्ते भी तलाशने चाहिए। किसी एक क्षेत्र को फायदा पहुंचाने के बजाय उन्हें उन स्किल्स में निवेश करना चाहिए, जो तमाम तरह की नौकरियों के लिए जरूरी हैं।
(© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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रघुराम राजन का कॉलम: अब हाई-स्किल्ड सेवाओं के निर्यात का दौर

