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- N. Raghuraman’s Column The Objective Of Some Public Services Cannot Be Profit making Alone
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
मुझे याद है अपने इसी कॉलम में चंद सालों पहले मैंने जापान की एक ट्रेन के बारे में लिखा था, जिसकी सेवाएं एक तय रूट पर इसलिए जारी रहीं ताकि एक लड़की स्कूल जा सके। जापानी ट्रेन कंपनी को तब से ग्राहक सेवा के प्रति अपनी निष्ठा के लिए सराहना मिली।
जब उसने कहा था कि वह हर सुबह व शाम को एक यात्री – स्कूली लड़की – को लेने और छोड़ने के लिए स्टेशन पर आती है। उसके ग्रेजुएट होने के बाद सर्विस बंद कर दी। शिक्षा को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखने और सिर्फ एक लड़की की शिक्षा के लिए सपोर्ट करने के लिए दुनिया भर में जापानी अधिकारियों को सराहा गया।
लोक सेवाएं देने वाले अधिकारियों के सामने इतने शानदार उदाहरण हैं, इस बीच कोलकाता में मेट्रो रेलवे द्वारा कम यात्री संख्या को देखते हुए अपनी आखिरी ट्रेन में 10 रु. सरचार्ज जोड़ने का निर्णय लिया है, चाहे यात्रा की दूरी कितनी ही क्यों न हो। रात 11 बजे छूटने वाली ‘नाइट’ स्पेशल मेट्रो ट्रेन इस साल 24 मई को दमदम व न्यू गड़िया के बीच शुरू की गई थी।
एक महीने बाद, अधिकारियों ने यात्री कम होने का बहाना बनाकर आखिरी ट्रेन का समय 20 मिनट पहले करके 10.40 कर दिया। छह महीने बाद, उन्होंने इस सर्विस पर अधिभार लगाया। नए किराए से आखिरी ट्रेन का किराया अजीब हो गया।
ये समझ में आता है कि जो व्यक्ति शुरू से आखिरी छोर तक सेवा का प्रयोग कर रहा है, 25 रु. किराया दे रहा है, उसे 35 रु. चुकाने होंगे। लेकिन जो दो किमी दूर अगली स्टेशन तक जा रहा है और 5 रु. की टिकट खरीद रहा है, उसे नए सरचार्ज के बाद 15 रु. देने होंगे।
अब सवालों की फेहरिस्त है: जब अधिकारियों ने ये ‘नाइट’ स्पेशल पेश की, तो क्या उन्होंने इसे बाजार की मांग देखे बिना पेश किया? जब उन्होंने रात 11 की ट्रेन को 10.40 बजे कर दिया, तो क्या इससे ये नाइट स्पेशल बन गई? चूंकि कोलकाता जैसा मेट्रो शहर, जो अपनी कई लेट लाइट सर्विस के लिए जाना जाता है, वहां 10.40 ‘नाइट’ है?
ऐसी सुविधा शुरू करने से पहले अधिकारी स्थानीय लोगों की रात की आदत का पता कैसे नहीं लगा सके? क्या वे सचमुच यकीन करना चाहते हैं कि कोलकाता रात 10.40 बजे से पहले सो जाता है? और आखिरी सवाल : क्या उन दुकानदारों के सामने इस नई नाइट स्पेशल ट्रेन के प्रचार-प्रसार के लिए छह महीने का समय पर्याप्त नहीं था, जो रात 10 से 10.30 के बाद बाजार बंद करके घर जाने के लिए लास्ट ट्रेन पकड़ते हैं?
कालीघाट, श्यामबाजार, एस्प्लेनेड और टॉलीगंज जैसे सबसे भीड़भाड़ वाले स्टेशनों के दुकान मालिकों, सड़क किनारे स्टाल वालों, सब्जी विक्रेताओं और कई अन्य छोटे व्यवसाय मालिकों से पूछें कि यह ट्रेन उनके लिए एक आशीर्वाद थी। मूल्य वृद्धि या कम यात्रियों का हवाला देकर इसे बंद करने का ख्याल यकीनन रूप से समाज के एक विशेष वर्ग को प्रभावित करेगी।
इस विषय को सिर्फ 10 रुपए की बात कहकर न देखें। इस विषय को उन अधिकारियों की मंशा से देखें जो इस सेवा को चला रहे हैं। इसे मई में पेश किया गया था, जब मौसम गर्म था और कई लोगों ने एयर कंडीशनिंग का लाभ उठाकर यात्रा की होगी। और जब मौसम सुहाना हो गया, तो लोगों ने पैदल चलने के बारे में सोचा होगा। यदि कोई सर्विस दी जा रही है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि लोग हमेशा ही उसकी सभी सेवाओं का इस्तेमाल करें।
वही ट्रेनें दिन में तो ठसाठस भरी होती हैं। जब किसी शहर में ऐसे पब्लिक सर्विस ऑर्गेनाइजेशन शुरू होते हैं, तो कमाई की गणना प्रति दिन या महीने की कुल कमाई के आधार पर की जाती है, न कि हर एक सेवा पर। हर ट्रेन उतनी संख्या में लोगों को नहीं ले जा सकती, जितनी पीक आवर्स में ले जातीहै, जब ऑफिस जाने वाले लोग यात्रा करते हैं। यही कारण है कि उन्हें “सार्वजनिक सेवा” का लेबल मिलता है।
फंडा यह है कि निश्चित रूप से हर संगठन को लाभ कमाना चाहिए, लेकिन उसे समाज के हर वर्ग की सेवा भी करनी होगी, विशेष रूप से स्व-रोजगार और निजी कामकाज से जुड़े समाज की, जो कि रोजगार मांगने के लिए सरकार पर बोझ न डाले।
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एन. रघुरामन का कॉलम: कुछ पब्लिक सर्विस का उद्देश्य अकेले लाभ कमाना नहीं हो सकता