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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
2021 में एक दंपती के घर एक बच्चे का जन्म हुआ, लेकिन दिसंबर 2024 तक भी वे उसका नामकरण नहीं कर पाए क्योंकि दोनों एक-दूसरे के दिए नाम पर सहमत नहीं थे! दोनों की सहमति वाले नाम के साथ जन्म प्रमाण पत्र हासिल करने में तीन साल लग गए। लेकिन यह नाम न तो उसकी मां का दिया था और ना ही पिता का, बल्कि कोर्ट ने उसे यह नाम दिया।
बच्चे के जन्म के बाद से ही मां ने उसे ‘आदि’ बुलाना शुरू कर दिया, लेकिन पिता भगवान “शनि’ के नाम पर नाम रखना चाहते थे! हैरानी की बात थी कि पत्नी की गर्भावस्था शुरू होने के बाद से लेकर बच्चे के जन्म तक पति उससे मिलने नहीं आया। पति, पत्नी द्वारा दिए नाम पर राजी नहीं थी। इसलिए इस शनिवार तक, जन्म रिकॉर्ड के तौर पर किसी भी सरकारी एजेंसी में उसका कोई भी नाम रजिस्टर नहीं हो सका।
दंपति बीच का कोई रास्ता नहीं निकाल पा रहे थे, ऐसे में पत्नी ने कोर्ट की शरण लेते हुए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति से भरण-पोषण की मांग की। मैसूर के पास हुनसुर के इस दंपति ने सही नाम चुनने का काम न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारियों के समूह पर छोड़ दिया, जिन्होंने उनके तीन साल के बच्चे के लिए एक नाम चुना।
इस शनिवार को कोर्ट ने आखिरकार जाकर बच्चे के लिए “आर्यवर्धन’ नाम चुना और इस निर्णय के बाद तलाक की कगार पर खड़े पति-पत्नी भी एक हो गए, दोनों ने एक-दूसरे को हार पहनाया और अपने तीन साल पुराने मतभेद पीछे छोड़ दिए।
एक और उदाहरण लें। यह भी इसी शनिवार को हुआ। बलिया के स्थानीय मनियर बाजार में सब्जी की दुकान लगाने वाला छट्ठू प्रसाद उर्फ गोलू तुरहा गले में एक तख्ती लटकाए पुलिस थाने पहुंचा, जिस पर लिखा था, “आज के बाद किसी लड़की या महिला पर फब्तियां नहीं कसूंगा।’
पुलिस ने सख्त हिदायत देकर उसे छोड़ दिया। स्कूल और कॉलेज जानी वाली लड़कियों को ऐसे मनचलों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए पुलिस ने एंटी रोमियो ऑपरेशन शुरू किया है और इसके अच्छे परिणाम आने लगे हैं। वह पुलिस के राडार में तब आया, जब एक स्थानीय व्यक्ति ने शिकायत की कि वह अपनी सब्जी की दुकान के सामने से गुजरने वाली लड़कियों पर फब्तियां कसता है।
इस वजह से उसकी लड़की और वहां से आने जाने वाली अन्य महिलाएं-लड़कियों को शर्म के मारे अपना सिर झुकाकर निकलना पड़ता है। शिकायत के आधार पर पुलिस ने केस दर्ज किया। जब उस मनचले को पता चला कि पुलिस उसे ढूंढ रही है, तब उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
ये दो उदाहरण बदलते समाज का प्रतिबिंब हैं। पहले मामले में पति-पत्नी के बीच का ईगो सामने आया। एक दंपति आम सहमति में असमर्थता के आधार पर अलगाव की मांग कर रहा है। अपने बच्चे को दुनिया में लाने के बाद उसका नाम क्या होना चाहिए? वाकई?
ऐसी दुनिया में जहां एक क्लिक पर सैकड़ों नाम, उनके अर्थ सामने आ जाते हैं, क्या हमें वास्तव में ऐसे मामलों पर माननीय अदालतों को परेशान करने की जरूरत है? गांव का मुखिया या परिवार का सबसे बड़ा व्यक्ति इस मुद्दे को आसानी से हल कर सकता था।
दूसरा मामला समाज के दो पहलुओं को दर्शाता है। परवरिश के मामले में हमारे गिरते मूल्य और हममें से कई लोग अपने आसपास की स्थितियों के प्रति उदासीन हैं। पता नहीं इस आत्मसमर्पण के बाद उसकी आदतों में कितना सुधार आएगा, लेकिन याद रखें कि उसका यह कदम सिर्फ डर के कारण था। मुझे नहीं पता कि उसे अहसास भी है या नहीं कि उसने एक भयंकर गलती की है।
कम से कम समाज के तौर पर हम उसकी दुकान का बहिष्कार कर सकते थे। अदालतों और पुलिस पर काम का बोझ है। हमें भी एक भूमिका निभानी चाहिए और अगली पीढ़ी को बाकी मनुष्यों के प्रति उदार बनाना चाहिए, खासकर महिलाओं के प्रति, ताकि उन पर से काम का बोझ कम हो सके।
फंडा यह है कि एक मजबूत समाज छोटे-छोटे मुद्दों को अदालत और पुलिस स्टेशन में नहीं ले जाता है। हमारा सामाजिक ताना-बाना पहले ऐसे मुद्दों को हल करता था लेकिन किसी तरह यह आधुनिक दुनिया में खो गया है।
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एन. रघुरामन का कॉलम: क्या हमारा सामाजिक ताना-बाना कमजोर होता जा रहा है?