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7 घंटे पहले
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मनोज जोशी विदेशी मामलों के जानकार
अब सीरिया में क्या होगा? इस सवाल का संक्षिप्त उत्तर यह है कि कोई नहीं जानता। हम केवल इतना भर जानते हैं कि क्या हुआ है। असद परिवार की 54 साल पुरानी तानाशाही समाप्त हो गई है और राष्ट्रपति बशर अल-असद मॉस्को भाग गए हैं। लेकिन सीरिया के बागी एकजुट नहीं हैं। विद्रोही गुटों में हयात तहरीर अल शाम (एचटीएस) सबसे प्रसिद्ध है।
इसका आधार इदलिब प्रांत और इसका नेता अबू मोहम्मद अल-गोलानी है। लेकिन दक्षिण में ऐसे कई समूह हैं, जो एचटीएस के साथ ही दमिश्क में प्रवेश कर गए थे। इसके अलावा, सीरिया का एक बड़ा हिस्सा सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेस (एसडीएफ) से संबंधित कुर्द मिलिशिया द्वारा नियंत्रित है, जो तेल और गैस संसाधनों को भी नियंत्रित करता है।
उत्तर में सीरियाई राष्ट्रीय सेना जैसे कई तुर्किये समर्थित समूह भी हैं। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) भी यहां है, जिसने 2014-2019 में सीरिया के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र को नियंत्रित किया था। लेकिन अब उनके पास पूर्व-मध्य में चंद छोटे क्षेत्र ही हैं।
बाहरी ताकतों ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। इनमें सबसे प्रमुख तुर्किये है, जो सीरिया के साथ 900 किमी की सीमा साझा करता है। तुर्किये में 30 लाख सीरियाई शरणार्थी हैं और इसका मुख्य लक्ष्य कुर्द लोगों को रोकना है, जो इराक, तुर्की, सीरिया और ईरान के क्षेत्रों में अपना खुद का देश बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
आईएसआईएस के खिलाफ लड़ाई में एसडीएफ का समर्थन करने के लिए अमेरिका उत्तर-पूर्वी सीरिया में एक छोटी सैन्य-उपस्थिति बनाए रखता है। इससे अमेरिका और तुर्किये के बीच तनाव रहता है क्योंकि तुर्किये इस क्षेत्र में कुर्द समूहों के किसी भी सशक्तीकरण को लेकर चौकन्ना रहता है। इजराइल भी सीरिया में लगातार हवाई हमले करता रहा है, मुख्य रूप से हिजबुल्ला को ईरानी हथियारों की आपूर्ति रोकने के लिए।
बशर अल-असद को ईरान, हिजबुल्ला और रूस के समर्थन से आगे बढ़ाया गया था। मॉस्को के पास तारतूस में एक नौसैनिक अड्डा और लताकिया के पास हमीमिम में एक एयरबेस है। असद का पतन एक स्तर पर उन दो युद्धों का परिणाम है, जिन्होंने 2022 से दुनिया को झकझोर कर रख दिया है।
पहला यूक्रेन युद्ध है, जिसके परिणामस्वरूप रूस ने अपना ध्यान कीव से निपटने पर केंद्रित कर दिया है। दूसरा क्षेत्र में इजराइल के युद्ध हैं, जिन्होंने हिजबुल्ला को नष्ट कर दिया है और ईरान की सैन्य क्षमता को काफी कम कर दिया है।
सीरिया एक मायने में एक कृत्रिम-राष्ट्र है। इसे ब्रिटिश और फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों द्वारा बनाया गया था। 1916 के साइक्स पिकोट समझौते के माध्यम से, ब्रिटेन और फ्रांस ने मौजूदा जातीय या आदिवासी सीमाओं की परवाह किए बिना ओटोमन साम्राज्य के क्षेत्रों को विभाजित किया था। फिर वहां लंबे समय तक गृहयुद्ध चला। 1946 में फ्रांसीसी चले गए और सीरिया ने एक बार फिर अशांति और उथल-पुथल देखी, जिसके कारण लगातार सैन्य तख्तापलट हुए।
आखिरकार 1970 में वायुसेना अधिकारी हाफिज अल-असद को राष्ट्रपति बनाया गया। वह अलावी था, जो शियाओं से जुड़ा संप्रदाय था। सीरिया में अलावियों की आबादी लगभग 10 से 12 प्रतिशत थी। अगले 50 वर्षों तक, असद और 2000 में उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे बशर ने राज किया, जिसमें सभी प्रमुख पदों पर अलावी लोगों का नियंत्रण था।
v इन दोनों के शासन को अत्यधिक दमन और क्रूरता के लिए जाना जाता था। 2011 का सीरियाई गृहयुद्ध लोकतंत्र के लिए उतना ही था, जितना कि वह सुन्नियों का विद्रोह था। सुन्नी मुसलमान- जिनमें अरब भी हैं और कुर्द भी- सीरिया में 75 प्रतिशत हैं।
एक राष्ट्र के रूप में सीरिया के अस्तित्व को लेकर हम आशावादी नहीं हो सकते। यह लीबिया की तरह बिखर सकता है। इसमें सबसे बड़ा नुकसान ईरान और रूस को होगा, जो अपने भू-राजनीतिक लाभ खो देंगे। वहीं कुर्द, इजराइल और अमेरिका फायदे में हो सकते हैं। तुर्किये सीरिया पर नियंत्रण कायम करने का दावा करना चाहता है, लेकिन उसके पास पूरे देश से निपटने की क्षमता नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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मनोज जोशी का कॉलम: सीरिया की घटनाओं से रूस और ईरान के हाथ कमजोर होंगे