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- Pawan K. Verma’s Column It Is Very Important To Look At History With Impartiality
पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
हाल ही में, विक्रम सम्पत की नई किताब ‘टीपू सुल्तान : द सागा ऑफ मैसूर इंटररेग्नम (1760-99)’ का दिल्ली में लोकार्पण हुआ। यह टीपू सुल्तान की 900 पृष्ठों की जीवनी है। कार्यक्रम में मैंने भी अपनी बातें रखीं। विदेश मंत्री एस. जयशंकर इसमें मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे और वे भी बहुत अच्छा बोले।
मैं विक्रम सम्पत का प्रशंसक हूं और मन ही मन उनसे ईर्ष्या करता हूं। एक इतिहासकार के रूप में उनकी उल्लेखनीय विद्वत्ता, सटीक शोध, उनके गद्य की गुणवत्ता और वैचारिक झुकाव के बावजूद उनकी निष्पक्षता के लिए मैं उनका प्रशंसक हूं।
लेकिन जिस गति से वे एक के बाद एक किताबें लिख डालते हैं, इस उद्यमशीलता के कारण मुझे उनसे ईर्ष्या भी होती है। विक्रम सम्पत ने महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की दो खंडों में एक बेहतरीन जीवनी का लेखन भी किया है।
मैंने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट हिंदू सिविलाइजेशन’ में सावरकर पर सम्पत की पुस्तक से उद्धरण दिए हैं। जहां उन्होंने ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी के लिए सावरकर के साहस और बलिदान को आदरांजलि दी है, वहीं उनके लिए कोई कसीदा नहीं लिखा है।
उनके शब्दों में : ‘हिंदुत्व की विचारधारा के बौद्धिक स्रोत के रूप में सावरकर निस्संदेह सबसे विवादास्पद राजनीतिक विचारकों में से एक हैं… उनके लंबे और तूफानी जीवन के वृत्तांतों ने महिमा-मंडनों को भी जन्म दिया है और निंदा-पर्वों को भी। लेकिन सच्चाई, हमेशा की तरह, इनके बीच में कहीं है।’
हिंदुत्व की तरफ झुकाव रखने वाले शीर्ष विचारकों में से एक होने के बावजूद विक्रम के द्वारा ऐसा लिखने के लिए न केवल साहस बल्कि ईमानदारी की भी आवश्यकता है। दुर्भाग्य से इस तरह की ईमानदारी अब दुर्लभ होती जा रही है। जो लोग सावरकर को आंख मूंदकर पूजते हैं, वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि वे कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल नहीं हुए थे।
वे नास्तिक और अडिग तर्कवादी थे और हिंदू धर्म के भीतर सुधारों के प्रबल समर्थक थे। जातिगत भेदभाव और लैंगिक विषमता जैसी हिंदू धर्म की बुराइयों को वे सात बेड़ियां कहते थे, जिन्हें तोड़ने की जरूरत थी।
दरअसल, हिंदुत्व पर सावरकर का संक्षिप्त लेख- जिसे आज उनके अकसर-अनभिज्ञ समर्थकों द्वारा बहुत उद्धृत किया जाता है- एक विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ में लिखा गया था। लेकिन बाद में, उन्होंने खुद ही उसे उचित परिप्रेक्ष्यों में प्रस्तुत किया।
दुर्भाग्य से, कट्टर हिंदू रूढ़िवादिता के खिलाफ उनके अडिग संघर्ष को विरले ही कभी रेखांकित किया जाता है। लेकिन विक्रम सम्पत ने अपनी भव्य पुस्तक में ऐसा करने का साहस दिखाया है। यही ऐतिहासिक निष्पक्षता टीपू सुल्तान पर उनकी किताब में भी दिखाई देती है।
हाल के दिनों में टीपू तीखे विवादों के केंद्र में रहे हैं। कांग्रेस समेत कुछ लोग उनमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक निष्ठावान स्वतंत्रता सेनानी की छवि देखते हैं; जबकि अन्य- खासकर भाजपा और दक्षिण भारत के बड़े हिस्से द्वारा- उन्हें एक कट्टर मुस्लिम सुल्तान के रूप में देखा जाता है, जिसने हिंदुओं का नरसंहार करवाया।
ये दोनों दृष्टिकोण मान्य हैं, क्योंकि जैसा कि विक्रम सबसे पहले स्वीकार करते हैं, इतिहास को केवल काले या सफेद में बांटकर नहीं देखा जा सकता।
यह तर्क देना कि उनकी उपनिवेश-विरोधी साख को इसलिए कमजोर कर दिया गया क्योंकि वे अंग्रेजों से लड़ने के लिए फ्रांसीसियों की मदद लेने को तैयार थे- मूर्खतापूर्ण है। क्योंकि उस समय के कई हिंदू राजघरानों ने भी स्वेच्छा से अंग्रेजों के साथ सांठगांठ की थी, और केवल इस आधार पर उन्हें या उनके पूर्वजों का मूल्यांकन करना गलत होगा।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि टीपू एक क्रूर कट्टरपंथी था, जिसने निर्दयतापूर्वक हिंदुओं और ईसाइयों का धर्मांतरण कराया, उनकी हत्याएं करवाईं और उनके पूजास्थलों को नष्ट किया। इन तथ्यों को नजरअंदाज करना बेईमानी होगी, क्योंकि इतिहास को हवा में उड़ा देने की प्रतिक्रिया देर-सबेर होती ही है।
विक्रम अपनी पुस्तक में लिखते हैं : ‘टीपू सुल्तान, उनकी विरासत, उनके चरित्र चित्रण और उनके योगदान पर अभी भी फैसला नहीं हुआ है…’, और वे विद्वान नरसिंह सिल के इस आकलन को पुष्ट करते हैं कि : ‘समय आ गया है कि हम टीपू के बारे में एक उचित यथार्थवादी आकलन पर पहुंचें…’। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है कि जहां उन्होंने अंग्रेजों से बहादुरी से लड़ाई लड़ी वहीं वे इस्लामी कट्टरपंथी भी थे। इतिहास धूसर रंग की ऐसी ही पटकथाओं से भरा है और विक्रम सम्पत इस बात को समझते हैं।
- जो कम जानते हैं, उन्हें लगता है वे हमेशा सही हैं। और जो जानते हैं, वे इतिहास में संतुलन बनाने की कोशिशें नहीं करते। इतिहास धूसर रंग की पटकथाओं से भरा है, जिसमें कुछ भी पूरी तरह से काला या सफेद नहीं होता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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पवन के. वर्मा का कॉलम: इतिहास को निष्पक्षता के साथ देखना बहुत जरूरी है