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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर
ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी स्थापना के सौ साल पूरे होने से ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वजूद के दूसरे दौर में प्रवेश कर लिया है।
संघ हमेशा राजनीति में सक्रिय रहा है, पर हरियाणा, कश्मीर, महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा चुनावों से पहले उसकी राजनीति एक खास तरह की राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक गोलबंदी में लिपटी रहती थी। चुनावों में पहले जनसंघ और अब भाजपा की पूरी मदद करने के बावजूद वह जब चाहे कह देता था कि उसके कामों को राजनीति की श्रेणी में नहीं डाला जाना चाहिए।
लेकिन इन चुनावों में मीडिया-मंचों पर उसके पैरोकारों ने जो कहा, उसका एक ही मतलब निकल सकता है कि इन चुनावों में पीछे से भूमिका निभाने के बजाय संघ ने भाजपा की अगुआई की। उसने हरियाणा और महाराष्ट्र की असाधारण जीतों का श्रेय लेने में कसर नहीं छोड़ी। यानी अब संघ को अपना राजनीतिक चेहरा नुमायां करने में संकोच नहीं है। इससे संघ और भाजपा के संबधों में परिवर्तन होना तय है।
सार्वजनिक जीवन में संघ की प्रामाणिक आवाज समझे जाने वाले दिलीप देवधर ने मीडिया को बताया है कि संघ ने इस बार महाराष्ट्र के चुनाव में वोटरों को प्रभावित करने के लिए जितना नियोजित प्रयास किया, उतना उसने न तो 1977 के चुनाव में आपातकाल के बाद किया था और न ही 2014 के चुनाव में किया था।
देवधर के मुताबिक संघ के पश्चिमी प्रांत के प्रमुख रहे अतुल लिमये के नेतृत्व में 3000 इंटेलेक्चुअल कमांडो तैयार किए गए थे, जिन्होंने इस विशाल राज्य के कोने-कोने में जाकर बेहद अनुशासित तरीके से भाजपा का संदेश फैलाने, नारों को लोकप्रिय करने और कांग्रेस की आलोचना करने में असंख्य स्त्री-पुरुष स्वयंसेवकों (प्रदेश के बाहर से लाए गए करीब 30 हजार कार्यकर्ताओं समेत) का नेतृत्व किया।
इस काम में संघ के दो मंचों लोकजागरण मंच और प्रबोधन मंच की भी विशेष भूमिका रही। संघ की इस मुहिम को नजदीकी से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकारों के मुताबिक इस अभियान में न झंडा दिख रहा था, न लाउडस्पीकर का इस्तेमाल हो रहा था। सम्पर्क की प्रक्रिया व्यक्तिगत स्तर की थी। वोटरों की तीन श्रेणियां बनाई गईं। पहली श्रेणी में भाजपा के पारम्परिक वोटरों को रखा गया।
दूसरी और तीसरी श्रेणियां क्रमश: भाजपा से दूरी रखने वाले वोटरों की थीं, जिन पर ज्यादा ध्यान देना था। संघ के प्रचारकों ने ओबीसी समुदायों (तेली, धनगर, माली, सुतर और बंजारा) में जमकर भाजपा का संदेश फैलाया। दूसरी तरफ विदर्भ क्षेत्र को कांग्रेस के पाले से निकालने के लिए नियोजित प्रयास किए गए। चुनाव प्रचार के आखिरी 20 दिनों में संघ ने नितिन गडकरी को मैदान में उतारा। उन्होंने पूरे प्रदेश में 70 से ज्यादा रैलियां कीं।
खास बात यह भी रही कि संघ ने शुरुआत से ही भाजपा के नेताओं के साथ समन्वय बनाते हुए उम्मीदवारों के चयन में भी भूमिका का निर्वाह किया। अपने इस नए संस्करण में संघ चाहता है कि सारा देश उसके इस चुनावी-उद्यम के बारे में जाने। इसलिए मुहिम के दौरान ही अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें छपीं कि किस तरह संघ जो काम हरियाणा में कर चुका है, वही वह महाराष्ट्र और झारखंड में ज्यादा बड़े पैमाने पर कर रहा है।
एक अनुमान के अनुसार हरियाणा में संघ ने कम से कम दस हजार बैठकें करके कांग्रेस के पक्ष में चल रही लहर का मुकाबला किया। महाराष्ट्र के संदर्भ में उसका यह प्रयास करीब तीन लाख बैठकों तक चला गया। यहीं सवाल उठता है कि झारखंड में संघ की ये गतिविधियां इच्छित परिणाम क्यों नही दे सकीं?
हम जानते हैं कि वनवासी कल्याण आश्रम के जरिए संघ आदिवासियों के बीच सघन काम करता है। तब महाराष्ट्र के आदिवासियों ने भाजपा और झारखंड के आदिवासियों ने झामुमो को वोट क्यों दिए? इसके दो कारण समझे जा रहे हैं। पहला, महाराष्ट्र देश के सबसे शहरीकृत (तकरीबन 60%) राज्यों में से है। फिलहाल संघ और हिंदुत्व की विचारधारा शहरी इलाकों में अधिक असरदार होती है।
दूसरा, हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी से आदिवासियों में भाजपा विरोधी माहौल बन गया था। लेकिन दिलीप देवधर की बातों में झांकने पर यह अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि मोदी संघ-मुक्त भाजपा और संघ-मुक्त सरकार बनाना चाहते थे। 4 जून को मतदाताओं ने उनकी इस कोशिश पर पानी फेर दिया। इसका लाभ उठाकर संघ ने वापसी की।
शुरुआती छींटाकशी के बाद संघ और मोदी के बीच संयुक्त-नेतृत्व का व्यावहारिक समीकरण बन गया है। इसमें पलड़ा बार-बार संघ के पक्ष में ही झुकना है। भाजपा का काम संघ के बिना नहीं चलने वाला है।
- पहले भाजपा के अध्यक्ष यह कहने का साहस कर सकते थे कि अब पार्टी को संघ की जरूरत नहीं रही। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में संघ ने साबित कर दिया है कि भाजपा का काम संघ के बिना नहीं चलने वाला।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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अभय कुमार दुबे का कॉलम: भाजपा का काम आरएसएस के बिना नहीं चलने वाला है