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बरखा दत्त का कॉलम: कांग्रेस सोशल मीडिया के बजाय हकीकत पर ध्यान दे Politics & News

बरखा दत्त का कॉलम:  कांग्रेस सोशल मीडिया के बजाय हकीकत पर ध्यान दे Politics & News

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10 दिन पहले

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बरखा दत्त फाउंडिंग एडिटर, मोजो स्टोरी

कांग्रेस पार्टी को बहुत चिंतित होना चाहिए। महाराष्ट्र के परिणाम एमवीए (महा विकास अघाड़ी) के तीनों दलों के लिए झटका हैं। जहां शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने राजनीतिक अस्तित्व की चुनौतियां हैं, वहीं कांग्रेस ने वह बढ़त खो दी है, जो उसे लोकसभा चुनाव के बाद मिली थी। आंकड़ों की पड़ताल करें तो चौंका देने वाले रुझान सामने आते हैं।

एमवीए के तीनों दलों ने मिलकर शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट से भी कम सीटें हासिल की हैं! अजित पवार- जिन्हें महज छह महीने पहले महाराष्ट्र में भाजपा के लिए कमजोर कड़ी बताया गया था- फिर से चौंका देने वाली सफलता के साथ उभरे हैं। ‘भतीजे’ ने न केवल अपने ‘चाचा’ से बेहतर प्रदर्शन किया है; बल्कि 20 सीटें लाकर उनकी पार्टी कांग्रेस से भी बेहतर साबित हुई।

अगर जून में विपक्षी दल ये कहकर अपने प्रति सहानुभूति जगाने में सक्षम हुए थे कि घुसपैठियों ने उनके यहां सेंध लगाई है तो छह महीने से भी कम समय में वह सहानुभूति कैसे गायब हो गई? मूल पार्टियों से अलग हुए धड़ों ने उन दलों से भी बेहतर प्रदर्शन कैसे कर दिखाया, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया था? मतदाता राष्ट्रीय और राज्य के चुनावों को अलग-अलग तरीके से देखते हैं, यह तर्क इन नतीजों की आंशिक रूप से ही व्याख्या कर सकता है। लेकिन विपक्ष का चुनाव प्रचार अभियान स्पष्ट रूप से विभाजित और अप्रभावी था।

कांग्रेस के लिए तो महाराष्ट्र के नतीजे एक बड़े हादसे की तरह हैं। न केवल इसलिए कि यह राज्य में पार्टी की लगातार तीसरी हार थी; बल्कि इसलिए भी कि लोकसभा चुनावों के बाद वह अपने दम पर किसी भी चुनाव में प्रभावी प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं रही है। जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ऑन रिकॉर्ड कहा कि कांग्रेस ने जम्मू में अपना पूरा दमखम नहीं लगाया।

वहां कांग्रेस को नेशनल कॉन्फ्रेंस की हवा ने आगे बढ़ाया। हरियाणा में, एक विभाजित घर और एक परिवार (और एक जाति, जैसा कि मतदाताओं में धारणा बनी थी) पर ध्यान केंद्रित करने के कारण उसे हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने सत्ता कायम रखी।

झारखंड में जीत- जैसा कि विपक्ष के समर्थक योगेंद्र यादव कहते हैं- पार्टी के लिए केवल ‘इज्जत बचाने वाली’ है। वहां भी हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झामुमो और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन की जोशीली लड़ाई को इसका श्रेय मिलेगा। लेकिन महाराष्ट्र में हार ने गलतियों की एक शृंखला को सामने ला दिया है।

तो भूल कहां पर हो रही है? कारण बहुत सरल हैं। और यही बात मैंने हरियाणा के बाद भी कही थी कि कांग्रेस ने संगठन के प्रबंधन की बजाय समर्थकों के एक खास समूह तक संदेश पहुंचाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है। निश्चित रूप से, सोशल मीडिया पर कांग्रेस अपने सिनेमाई-शैली के वीडियो के साथ युवा और प्रयोगधर्मी दिखती है और सावधानीपूर्वक व योजनाबद्ध रूप से चुने गए उम्मीदवारों में पार्टी की रणनीतिक सोच भी नजर आती है।

राजनीति में कुछ नयापन लाने में बुराई नहीं है। समस्या तब होती है जब आप अपने इंस्टाग्राम फीड पर मिलने वाले हजारों लाइक्स को ही मतदाताओं की आवाज समझने लगते हैं। और फिर आप भ्रम में पड़कर यह मानने लगते हैं कि आप जो कुछ गूढ़ या तकनीकी मुद्दे उठा रहे हैं- उदाहरण के लिए गौतम अदाणी के व्यापारिक सौदों पर जुनूनी तरीके से फोकस करना- उन्होंने मतदाता को प्रभावित कर दिया है।

महाराष्ट्र विधानसभा के नतीजों ने निर्णायक रूप से साबित कर दिया है कि अदाणी मुद्दे का मतदाताओं के साथ कोई तालमेल नहीं था। इसके विपरीत, लोकसभा चुनाव में संविधान के खतरे में होने का मुद्दा इसलिए चल गया, क्योंकि दलित-पिछड़े मतदाताओं को लगने लगा था कि भाजपा को भारी बहुमत मिलने पर मौजूदा आरक्षण नीति को बदला जा सकता है।

मैं यह नहीं कह रही हूं कि राजनीति को विचारधारा या सिद्धांतों से रहित होना चाहिए। लेकिन हकीकत यही है कि आज भी अधिकांश मतदाता उन्हीं मुद्दों पर वोट देते हैं, जो उनके रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करते हैं।

कांग्रेस का ध्यान सोशल मीडिया पर इतना अधिक केंद्रित हो चुका है कि उसने संगठन की मजबूती पर ध्यान ही नहीं दिया। आकर्षक संदेश देना राजनीति का केवल एक हिस्सा है। उसके दूसरे आयाम भी हैं। निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर संगठन, बूथ पर्यवेक्षण, टिकट वितरण और पार्टी की अंदरूनी संरचना के लिए एक नया खाका अरसे से लंबित है। कांग्रेस की समस्या यह भी है कि वह अपनी जीत को बढ़-चढ़कर और हार को कम करके आंकती है। उसे आत्ममंथन की दरकार है।

राजनीति में नयापन लाने में बुराई नहीं है। समस्या तब होती है जब आप इंस्टाग्राम पर मिलने वाले हजारों लाइक्स को ही मतदाताओं की आवाज समझने लगते हैं और मानने लगते हैं कि आपके मुद्दे जनता को प्रभावित कर रहे हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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