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- Brahma Chellaney’s Column It Is Not Possible To Be Friends With Us By Ignoring Our Interests
ब्रह्मा चेलानी पॉलिसी फॉर सेंटर रिसर्च के प्रोफेसर एमेरिटस कूटनीति
अमेरिका की भारत-नीति दिन-ब-दिन अधिक विद्वेषपूर्ण होती जा रही है, लेकिन उसे यह मालूम होना चाहिए कि दीर्घकालिक अमेरिकी रणनीतिक हितों के लिए भारत से अधिक महत्वपूर्ण कोई और शक्ति नहीं है। क्योंकि जनसंख्या, भौगोलिक स्थिति और सैन्य क्षमता- जिनमें परमाणु क्षमता भी शामिल है- के लिहाज से भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो एशिया पर प्रभुत्व जमाने और अमेरिका के वर्चस्व को बेदखल करने की चीन की कोशिशों को चुनौती दे सकता है।
जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के कार्यकाल से ही वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति-संतुलन बनाए रखने के लिए भारत के साथ साझेदारी को निर्णायक माना है। यह नीति कभी सिर्फ भाषणबाजी तक ही सीमित नहीं रही थी। पिछले एक दशक में तो अमेरिका-भारत सुरक्षा संबंध तेजी से गहराए थे- विशेषकर सैन्य इंटर-ऑपरेबिलिटी, खुफिया सहयोग और तकनीकी लेनदेन के स्तर पर।
वास्तव में, भारत-अमेरिका रिश्तों में बढ़त का एक हिस्सा तो ट्रम्प के पहले कार्यकाल में घटा था। चीन पर दबाव बढ़ाने और पाकिस्तान को दी जाने वाली सुरक्षा सहायता घटाने के साथ ही ट्रम्प ने भारत के साथ सहयोग को बढ़ाया, जो उनकी इंडो-पैसिफिक रणनीति के केंद्र में था। इसका असर भी स्पष्ट है : भारत आज किसी भी अन्य देश की तुलना में अमेरिका के साथ अधिक सैन्य अभ्यास करता है और अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन चुका है।
लेकिन इसी प्रक्रिया के बीच अमेरिका ने भारत को सतर्क रहने के कई कारण भी दिए। अफगानिस्तान से उसका अव्यवस्थित पलायन- जो बाइडेन के कार्यकाल में हुआ लेकिन जिसकी बुनियाद ट्रम्प द्वारा किए समझौते से पड़ी थी- ने अमेरिकी नेतृत्व की समझदारी और विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए, क्योंकि इसने अफगानिस्तान को फिर से तालिबान के हवाले कर दिया।
चिंताएं 2022 में तब और बढ़ीं, जब बाइडेन प्रशासन ने पाकिस्तान को आईएमएफ से बेलआउट दिलाने में मदद की और फिर उसके एफ-16 बेड़े के आधुनिकीकरण के लिए 45 करोड़ डॉलर की भी मंजूरी दे दी। ट्रम्प ने भी पाकिस्तान के प्रति इस झुकाव को और तेज ही किया है, जिसका एक उदाहरण उससे की गई क्रिप्टोकरेंसी डील है। अमेरिका ने अकसर भारत के हितों की अनदेखी की है।
इसके बावजूद रूस पर लगाए प्रतिबंधों को लागू कराने के मामले में वह भारत से पूरी निष्ठा की उम्मीद करता रहा। भारत इससे सहमत नहीं हुआ और उसने डिस्काउंटेड दरों पर रूसी तेल की खरीद बढ़ा दी। भारत को सुदूर यूरोप में चल रहे किसी संघर्ष के लिए अपने राष्ट्रीय हितों की बलि देने का कोई कारण नहीं दिखा, खासकर तब, जब रूस पर पश्चिमी दबाव का सबसे बड़ा लाभार्थी चीन था।
भारत इस समीकरण को पहले भी देख चुका है। 2019 में जब ट्रम्प ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए तो भारत अपने सबसे सस्ते और भरोसेमंद ऊर्जा स्रोतों में से एक से वंचित हो गया था। चीन ने इसका पूरा फायदा उठाया। उसने ईरानी कच्चा तेल भारी छूट पर खरीदा और वहां अपनी सुरक्षा मौजूदगी बढ़ाई। रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद भी यही पैटर्न उभरा।
पश्चिमी बाजारों से रूस को अलग कर देने के बाद उस पर लगाए प्रतिबंधों ने उसे चीन पर आर्थिक रूप से निर्भर बना दिया, जिससे चीन को रूस से आने वाले ऊर्जा-आपूर्ति मार्गों को मजबूत करने की क्षमता मिल गई। अब चीन जानता है कि ताइवान पर कार्रवाई करने पर भी रूसी ऊर्जा तक उसकी पहुंच नहीं घटेगी। इस बार भारत ने भी रूसी तेल पर उपलब्ध छूट का लाभ उठाया।
अमेरिका भारत को अपने लिए जरूरी बताता है, लेकिन उसके हितों की अनदेखी भी करता है। वह चाहता है कि भारत इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में उसकी रणनीति का आधार बने, लेकिन वो ऐसी नीतियां भी अपनाता है, जो भारत की आर्थिक क्षमता, क्षेत्रीय सुरक्षा और रणनीतिक स्वायत्तता को सीधे नुकसान पहुंचाती हैं।
यही कारण है कि आज भारत अमेरिका के प्रति अविश्वास से भर गया है और उसे रूस से संबंध मजबूत करने को मजबूर होना पड़ रहा है। अमेरिका हमारे साथ अच्छे रिश्ते चाहता है तो उसे हमें बराबरी का दर्जा देना होगा।
- अमेरिका भारत को अपने लिए जरूरी बताता है, लेकिन उसके हितों की अनदेखी भी करता है। वह चाहता है कि भारत इंडो-पैसिफिक में उसकी रणनीति का आधार बने, लेकिन वो ऐसी नीतियां भी अपनाता है, जो हमें क्षति पहुंचाती हैं।
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