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एन. रघुरामन का कॉलम: हमारी प्राचीन संस्कृति में खरीदारों को लुभाने की ताकत है Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  हमारी प्राचीन संस्कृति में खरीदारों को लुभाने की ताकत है Politics & News

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33 मिनट पहले

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एन. रघुरामन मैनेजमेंट गुरु

रियल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म नाइट इंडिया ने हाल ही में एक रिटेल स्टडी के लिए 32 शहरों के 365 शॉपिंग सेंटर्स का सर्वे किया। इसका शीर्षक था- ‘थिंक इंडिया, थिंक रिटेल 2025-वैल्यू कैप्चर : अनलॉकिंग पोटेंशियल’। सर्वे में 74 शॉपिंग सेंटर्स को ‘घोस्ट शॉपिंग सेंटर’ बताया गया।

यानी लगभग हर 4.93 में से एक शॉपिंग सेंटर में बड़ी संख्या में दुकानें खाली हैं। जो दुकानें चल भी रही हैं, वो अच्छी बिक्री नहीं कर पा रही हैं। नाइट फ्रैंक इंडिया की नेशनल डायरेक्टर (रिसर्च) अंकिता सूद कहती हैं कि ‘घोस्ट शॉपिंग सेंटर’ शब्द सुनकर भले सुनसान गलियारों और खाली दुकानों की तस्वीर सामने आती हो, लेकिन इनमें उल्लेखनीय बदलावों की संभावना छिपी है।

बस, इनके मकसद को फिर से समझने और समाज की बदलती जरूरतों के अनुसार इन्हें ढालने की जरूरत है। इससे एक चर्चा शुरू होती है कि आखिर भारतीयों को कैसे अधिक खरीदारी के लिए प्रेरित करें? मेरे पास एक छोटा, पर थोड़ा अलग नजरिया है, ताकि भारतीय खरीदारी पर पैसा खर्च कर अर्थव्यवस्था को गति दें। सर्दियों में इस देश को देखिए। अलग-अलग शहरों में लगने वाले मेले घरों में संस्कृति की महक बिखेरते हैं और कारीगरों को भी समृद्ध करते हैं।

लखनऊ को ही ले लीजिए। सर्द हवा के बीच गोमती के किनारे झूलेलाल पार्क ग्राउंड पर लगने वाले ‘कतकी मेले’ में लाख और फ्रेश टेराकोटा चमक रहा है, जो पुरानी यादें ताजा करता है। यह वार्षिक मेला उत्तरप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से आए कारीगरों और छोटे कारोबारियों के हुजूम से कहीं अधिक है। इसमें कतारबद्ध स्टॉल्स में वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट (ओडीओपी) उत्पाद भी सजे होते हैं।

अगर आप देशभर में दशकों से लगते आए ऐसे मेलों में गए हैं तो पहले आप वहां के खुशगवार माहौल को महसूस करते हैं और फिर शायद कुछ खरीद भी लेते हैं।मुझे लगता है कि ज्यादातर मॉल्स दुर्भाग्य से यह चाहते हैं कि हम पहले खरीदें और अनुभव बाद में लें। शायद इसी वजह से लोग मॉल में खरीदारी को लेकर झिझकते हैं। 25 दिनों तक चलने वाला महज एक ऐसा मेला कारीगरों को करीब 37.5 लाख रुपए की कमाई करवा देता है। इसमें खाने-पीने और मनोरंजन की कमाई शामिल नहीं है, जो अकसर चीजों की खरीदारी से ज्यादा होती है।

अब देश के दूसरे छोर चेन्नई में चलिए, जहां मैं इस हफ्ते ‘मार्वलस मारगई’ का आनंद लेने आया हूं। तमिल कैलेंडर का यह महीना भगवान कृष्ण का प्रिय माना जाता है और गहरी आध्यात्मिकता से भरा है। इस दौरान पूरे चेन्नई में कर्नाटक संगीत के सैकड़ों कॉन्सर्ट होते हैं। मोगरा भले ही सीजन में सबसे महंगा फूल हो, लेकिन कॉन्सर्ट्स में हर महिला के सिर पर मोगरे के ही गजरे खुशबू फैलाते दिखेंगे। क्या यह खरीदारी नहीं है? बिल्कुल है। चेन्नई में उत्तर भारत जैसी सर्दी नहीं होती।

लेकिन ‘गुलाबी सर्दी’ के चलते दक्षिण में महिलाएं रेशमी साड़ियां पहन कर कॉन्सर्ट में जाती हैं। शाम के स्नैक्स में फिल्टर कॉफी के साथ कुछ लोग भजिया का लुत्फ उठाते हैं। मेले, उत्सव, कॉन्सर्ट जैसे सामाजिक कार्यक्रम आध्यात्मिकता के साथ मिल कर ही हमारे पूर्वजों को पैसे खर्च करने और अर्थव्यवस्था चलाने का प्रोत्साहन देते थे।

लोग महज दिवाली पर ही पैसा खर्च नहीं करते, बल्कि भारत में बड़े म्यूजिक फेस्टिवल्स, प्रदर्शनियों से लेकर छोटे सामुदायिक मेले और सांस्कृतिक आयोजनों तक ऐसे ढेरों मौके होते हैं। हालांकि देश की बड़ी आबादी आज भी मनोरंजन और खरीदारी से ज्यादा अपनी रोजमर्रा की जरूरतों पर अधिक खर्च करती है।

लेकिन ऐसे आयोजन उन्हें छोटी-सी यादगार खरीदारी के लिए प्रेरित जरूर करते हैं। मुझे नहीं लगता कि भारतीयों से पैसा खर्च कराने के लिए हमें ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘साइबर मंडे’, ‘सिंगल्स डे’, ‘बिग बिलियन डेज’ या ‘ग्रेट इंडियन फेस्टिवल’ जैसी चीजों की जरूरत है, जहां हम काेई कम उपयोग की चीज खरीद लें।

फंडा यह है कि हर उस त्योहार और परंपरा को अपनाएं, जिसे हमारे पूर्वजों ने जिया और देखिए कि कैसे यह खरीदारों को पैसा खर्च करने के लिए आकर्षित करता है, ताकि अर्थव्यवस्था बढ़ती रहे।

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