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एन. रघुरामन का कॉलम: अपने हर काम में परफेक्शन की तलाश एक निजी सोच है Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  अपने हर काम में परफेक्शन की तलाश एक निजी सोच है Politics & News

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  • N. Raghuraman’s Column The Pursuit Of Perfection In Everything You Do Is A Personal Concern

14 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

आपको साउथ इंडियन रेस्तरां के वो ‘डबरा’ और ‘टम्बलर’ याद हैं, जिनमें फिल्टर कॉफी मिलती है? वही ‘डबरा’ घर पर मेरी पहली आइरनिंग क्लास के लिए इस्तेमाल किया गया सबसे जरूरी उपकरण था। शिक्षिका मेरी मां थीं। उन्होंने गर्म जलते कोयले से थोड़े भरे हुए ‘डबरा’ को संसी की मदद से पकड़ा था। यह हमारी कामचलाऊ इस्तरी थी। पापा को किसी जरूरी काम से बाहर जाना था और जब वो तैयार हो रहे थे, तब मां को उनकी कमीज पर कड़क इस्तरी करनी थी।

मैं उनका सहायक था। उन्होंने कॉलर से शुरू किया। फिर एक-एक कर आस्तीनों को इस्तरी ​किया, पूरी सावधानी से कि कहीं एक भी अतिरिक्त सिलवट न रह जाए। उसके बाद शर्ट की पीठ पर उसकी प्लीट को संभालते हुए। उन दिनों पिता के पास वही एक कमीज हुआ करती थी, जिसे मेरी मां के भाई विदेश से लाए थे और उसकी बैक के बीच में वह प्लीट थी।

फिर वे सामने के हिस्सों पर बारी-बारी से इस्तरी करतीं, जब तक कि शर्ट बहुत अच्छी तरह से आइरन की हुई नहीं दिखने लगती। पिता अपनी पतलून की क्रीज को लेकर भी बहुत सचेत रहते थे। पतलून में एक शार्प क्रीज उनके लिए बहुत जरूरी थी, उन लोगों के विपरीत जिनकी पतलून पर जगह-जगह सिलवटें दिखती थीं और जो खराब इस्तरी का नतीजा हुआ करती थीं।

हमारे घर में कभी कोई इस्तरी नहीं थी, न ही इस्तरी करने का कोई फैंसी बोर्ड था। इस्तरी करने के लिए हम हमेशा बरामदे की एक ऊंची सीढ़ी का उपयोग करते और उस पर कुछ दरी या चादरें ठीक से तह करके बिछा देते। घर में न खाने की मेज थी, न पढ़ने की। हर काम जमीन पर बैठकर ही किया जाता था। कभी-कभी मां मुझे अपने स्कूल की यूनिफॉर्म पर इस्तरी करने देतीं ताकि मैं इसे सीख सकूं।

लेकिन मेरे अनुभवहीन हाथ उस सिंगल क्रीज को हासिल करने के लिए जद्दोजहद करते रहते और मैं जल्दबाजी कर बैठता। तब वे मुझे दोबारा इस्तरी करके दिखातीं कि यह ठीक तरह से कैसे किया जाता है। लेकिन उस सिंगल क्रीज और कड़क इस्तरी की हुई कमीज का विचार मेरे भीतर बस गया था। कमीज के दो बटनों के बीच ‘डबरा’ चलाना तो एक कला थी, जिससे हाथ के कुशल उपयोग से सिलवटों को मिटा दिया जाता।

कमीज के उस सामने वाले हिस्से पर इस्तरी करना आसान था, जहां बटन होल होते थे। इसकी तुलना में बटन वाले हिस्से पर काम करना कठिन था। उस हल्की नीली कमीज के हर बटन के आसपास ‘डबरा’ को धीमे, सुनियोजित ढंग से चलाना और कमीज को एकदम साफ, क्रिस्पी रूप देने का वह हुनर भी मेरे मन में बसा रहा।मैं हमेशा सोचता था कि जब कमीज के बटन लगाने पर वह हिस्सा फिर से सिलवटों से भर जाने वाला है, तो उसे इतनी मेहनत से इस्तरी करने की क्या जरूरत है।

लेकिन मेरे माता-पिता के लिए परफेक्शन एक निजी सोच थी। मां अच्छी तरह से इस्तरी की हुई सूती साड़ी पहनती थीं और उसकी प्लीट्स इतनी सटीक होती थीं कि अगर उन्हें स्केल से नापा जाए तो सभी बिल्कुल एक समान निकलें। साड़ी की सीधी खड़ी प्लीट और पिता की कमीज में कंधे से कोहनी तक की सटीक क्रीज- ये विवरण आज भी कुछ पुराने फोटो में दर्ज हैं और उन्हें मैं बार-बार निहारता रहता हूं।

यह स्टाइल न केवल उन्हें गर्व से भरती, बल्कि यह उनके चेहरों पर तब मुस्कराहट भी ले आती, जब सड़कों पर कोई उन पर नजरें ​टिका देता था। अगर पिता के लिए पतलून और कमीज की एकदम सीधी क्रीज के साथ चमचमाते हुए जूते आवश्यक थे तो मां हल्के रंग की सूती साड़ी को सलीके से पहनना पसंद करती थीं और पाउडर लगे चेहरे पर कुंकुम की गोल बिंदी बनाती थीं। वे रेडीमेड बिंदी का इस्तेमाल नहीं करती थीं। उन्होंने मुझे यह सिखाया कि जीवन में जो भी करो, उसे अच्छे से अच्छे तरीके से करने की कोशिश करो।

फंडा यह है कि जब हम कोई काम कर रहे हों तो उपकरणों के अभाव की शिकायत करना मूर्खता है। उसे अपने हिसाब से पूरा करें। तब आपको एक ऐसे संतोष का एहसास होगा, जिसे आप दूसरों को बयान नहीं कर सकते। लेकिन हमारी स्टाइल लोगों की निगाहों को अपनी तरफ खींचती है और धीरे-धीरे हमें उनके दिमाग में एक ब्रांड बना देती हैं।

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