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- Aarti Jerath’s Column This Time Mamata’s Political Skills Will Be Tested In Bengal
आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
एसआईआर को लेकर चुनाव आयोग से मुकाबला करने को तैयार ममता बनर्जी के राजनीतिक कौशल की परीक्षा होने जा रही है। सवाल है कि क्या वे एसआईआर को प्रभावी मुद्दा बनाकर 2026 के विधानसभा चुनावों में चौथी बार मुख्यमंत्री बन पाएंगी?
पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है, जहां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय अस्मिता की भावना गहराई से वोटरों के मन में बैठी हुई है। राज्य में आर्थिक बदहाली के बावजूद कई बार यह भावना विकास और रोजी-रोटी के मुद्दों से भी ज्यादा प्रभावी होती है।
2016 और 2021 में ममता ने भावनाओं पर आधारित चुनाव प्रचार अभियान चलाकर मोदी लहर का सामना किया था। उन्होंने भाजपा को ‘बाहर के लोगों’ की पार्टी बताया था, जिसे न तो बंगाल के इतिहास और संस्कृति के प्रति सहानूभूति है, ना ही इसकी समझ है।
लेकिन भावनात्मक चुनावी नारों का अगर ज्यादा इस्तेमाल हो तो वे बेअसर होने लगते हैं। ममता तीसरी बार यही जोखिम उठा रही हैं। और एसआईआर ने ममता को अपनी विशेष शैली में हमले करने के लिए मुद्दा भी दे दिया है।
पिछले हफ्ते दिल्ली में चुनाव आयोग के साथ खुली चर्चा में टीएमसी प्रतिनिधिमंडल की ओर से पूछे गए एक तीखे सवाल ने साफ कर दिया कि पार्टी अपने प्रचार अभियान को किस दिशा में ले जाने वाली है। सवाल था- ‘एसआईआर का मकसद मतदाता सूची का शुद्धिकरण करना है या बंगालियों को उससे बाहर करना?’
टीएमसी के इस आक्रामक रुख को एसआईआर के दौरान हुई मौतों ने और भड़काया है। प्रतिनिधिमंडल ने आयोग से कहा कि एसआईआर के बेवजह तनाव और दबाव के कारण 40 लोगों की मौत हो गई। आयोग की तीखी प्रतिक्रिया और भाजपा नेताओं की टिप्पणियां भी ममता को यह आग भड़काए रखने का ईंधन दे रहे हैं।
आयोग ने टीएमसी के मौतों संबंधी दावे को न सिर्फ बेबुनियाद बताकर खारिज कर दिया, बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर पार्टी पर तनाव का माहौल बनाने का आरोप मढ़ने की भी कोशिश की। आयोग ने प्रतिनिधिमंडल को निर्देश दिए कि वो एसआईआर में दखल ना दे और बीएलओ को प्रभावित करने या धमकाने की हिमाकत ना करे।
इधर भाजपा नेताओं ने भी टीएमसी पर आरोप लगाया कि वह अवैध घुसपैठियों को संरक्षण देने के लिए एसआईआर प्रक्रिया को बाधित कर रही है। इन नेताओं के समर्थक सोशल मीडिया पर कह रहे हैं कि टीएमसी के गुंडे बीएलओ को धमका रहे हैं।
ममता बनर्जी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि एसआईआर का उनके राज्य की मतदाता सूची पर असर पड़ेगा। वे पहले ही भाजपा द्वारा एक करोड़ वोटरों के नाम हटाए जाने संबंधी दावे पर चिंता जता चुकी हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि इनमें से ज्यादातर अल्पसंख्यक और गरीब वोटर होंगे, जो कि उनके कोर वोटर हैं।
सरकारी मशीनरी पश्चिम बंगाल के चुनावों में चाहे जो करे, लेकिन ममता का सबसे बड़ा हथियार तो भाजपा खुद ही बनती दिख रही है। उसके नेताओं के गैरजरूरी बयान ममता को यह प्रचार करने का मौका दे देते हैं कि बाहरी लोगों से बांग्ला संस्कृति को खतरा है।
जब केंद्रीय मंत्री गिरिराज किशोर पश्चिम बंगाल की सरकार को घुसपैठियों और रोहिंग्याओं की सरकार बताते हैं तो उनके बयान को समूचे बंगालियों के अपमान के तौर पर देखा जाता है। जब एक कांग्रेसी कार्यकर्ता द्वारा रबीन्द्रनाथ टैगोर का प्रसिद्ध गीत आमार शोनार बांग्ला गाया जाता है- जो संयोग से बांग्लादेश का राष्ट्रगान भी है- तो असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा उसके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज करा देते हैं।
ऐसा करके वे रबीन्द्रनाथ का सम्मान करने वाले सभी लोगों की अस्मिता और भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं। भाजपा शासित हरियाणा के गुरुग्राम में जब पुलिस अवैध बांग्लादेशियों को निकालने के अभियान में बंगाली बोलने वाले मजदूरों को धमकाती है तो पश्चिम बंगाल में उनके सगे-संबंधियों के मन में भय पैदा होता है। भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय जब बंगाली भाषा को निशाना बनाकर सोशल मीडिया पोस्ट करते हैं तो वे अपनी भाषा और साहित्य पर गर्व करने वाले बंगाली समुदाय को अलग-थलग कर रहे होते हैं।
कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल की चुनावी जंग में डर एक निर्णायक फैक्टर बन गया है। भाजपा घुसपैठियों का डर दिखा रही है तो ममता अस्मिता और पहचान की चिंताओं को हवा दे रही हैं। दुर्भाग्य से, भावनाओं के इस तूफान में राज्य के असल मुद्दे कहीं दब-से गए हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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आरती जेरथ का कॉलम: इस बार बंगाल में ममता के सियासी कौशल की परीक्षा

