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- N. Raghuraman’s Column: Keep At Least One Original Document For Everything In Life
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
उनकी शादी पूरे समाज के सामने हुई थी। विवाह करा रहे पुजारी ने दंपती को आशीर्वाद भी दिया था। इसी आधार पर उस महिला ने दावा किया कि 7 अप्रैल 1971 को हिंदू रीति-रिवाज से उसकी शादी एक व्यक्ति से हुई थी। उनके दो बच्चे भी हुए थे। फिर कुछ अप्रत्याशित हुआ।
1996 में पति की मृत्यु हो गई। लेकिन 1983 से 1996 के बीच ऐसा कुछ भी हुआ, जिसके बारे में उस ‘तथाकथित पत्नी’ (ये शब्द इस्तेमाल करने के पीछे एक कारण है, इस आर्टिकल के आखिर में आप यह समझ जाएंगे) को जानकारी हो भी सकती है और नहीं भी। उस व्यक्ति ने 7 जनवरी 1983 को किसी और से शादी कर ली। यह विवाह मुंबई उपनगर जिले के सब-रजिस्ट्रार कार्यालय में रजिस्टर्ड भी था।
आदमी की मृत्यु के बाद 1998 में मुकदमा दायर किया गया। वादी, यानी खुद को पहली पत्नी बताने वाली महिला और उसके दो बच्चों ने खुद को मुंबई के कांदिवली के उस फ्लैट का कानूनी वारिस घोषित करने की मांग की, जो मृतक व्यक्ति का था और उसमें दूसरी पत्नी रह रही थी।
यह कानूनी लड़ाई 27 वर्षों से ज्यादा चली। हाल ही बॉम्बे सिटी सिविल कोर्ट ने उस महिला और दो बच्चों का मृतक पानवाले की सम्पत्ति पर दावा खारिज कर दिया, जो खुद को मृतक की पहली पत्नी और कानूनी वारिस बता रही थी।
जज सीएस दातिर ने कहा कि ‘यह कहने की जरूरत नहीं कि वादी यह साबित करने में विफल रही कि वह मृतक की कानूनी विवाहिता पत्नी है। दोनों पक्षों द्वारा पेश दस्तावेजों में से प्रतिवादी के दस्तावेज प्रबल हैं। ‘प्रीप्रॉन्डेरेंस ऑफ प्रोबेबिलिटी’ के मूल सिद्धांत के अनुसार मामला प्रतिवादी के पक्ष में है, वादी के नहीं। इसलिए वादी राहत की हकदार नहीं है।’
कोर्ट ने माना कि राज्य सरकार के प्राधिकारी द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र हमेशा किसी पुजारी के पत्र से ज्यादा मान्य होता है। पुजारी का महज एक पत्र, वो भी 27 वर्षों के बाद और दावे से ठीक पहले लिया गया है– ठोस सबूत नहीं कहा जा सकता। उस पुजारी और कथित पांच गवाहों को कोर्ट में पेश नहीं किया गया।
1971 में हुए कथित विवाह की कोई तस्वीर भी पेश नहीं की गई। इसके विपरीत, कोर्ट ने प्रतिवादी के दावे के समर्थन में पेश दस्तावेजी सबूतों की मजबूती को भी बताया, जिनमें सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र, इसकी पुष्टि करती तस्वीरें और यह तथ्य था कि वह उस संपत्ति पर काबिज थी। साक्ष्य के तौर पर इन सभी को कहीं अधिक मजबूत माना गया।
यह कहानी बताती है कि क्यों किसी के पास हर चीज का कम से कम एक मूल दस्तावेज होना चाहिए। मसलन, जन्म प्रमाणपत्र, टीकाकरण, शिक्षा, पहली नौकरी, पीएफ नंबर, विवाह और इसकी फोटो, माता-पिता या संपत्ति धारक की मृत्यु के कागजात और ऐसी किसी–भी हस्तांतरणीय संपत्ति के मूल दस्तावेज– जो किसी ने अपनी नौकरी में खरीदी हो।
आजकल हर व्यक्ति अपने सारे दस्तावेज कहीं न कहीं क्लाउड में रखता है। फिलहाल तो क्लाउड सुविधाएं ज्यादातर विदेशी कंपनियों के पास हैं। और जब दस्तावेज धारक अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं तो क्लाउड और एआई पर अति-निर्भरता भी बड़ी जीत नहीं दिला पाई है।
दिलचस्प यह है कि इसी शनिवार को साउथ जोन रीजनल ज्युडिशियल कॉन्फ्रेंस में जजों ने ‘हैलुसिनेटेड साइटेशन्स’ का हवाला देते हुए अदालतों में एआई पर अति-निर्भरता के खिलाफ चेतावनी दी है। इसका मतलब ऐसे मनगढ़ंत, गैर-मौजूद कानूनी संदर्भ, स्रोत और कानूनी दृष्टांत हैं– जिन्हें एआई मॉडल तथ्य के तौर पर पेश कर देते हैं।
फंडा यह है कि मौजूदा हालात में सबसे सुरक्षित यही है कि आप हर चीज का एक मूल दस्तावेज तो अपने पास रखें, जो हमारे अस्तित्व, हमारी सम्पत्ति को साबित कर सके और बता सके कि हमारे बाद सम्पत्ति का हकदार कौन होगा।
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एन. रघुरामन का कॉलम: जीवन से जुड़ी हर चीज का कम से कम एक मूल दस्तावेज जरूर रखिए

