in

शेखर गुप्ता का कॉलम: पाकिस्तान को ‘वॉकओवर’ ना देना ही अच्छा Politics & News

शेखर गुप्ता का कॉलम:  पाकिस्तान को ‘वॉकओवर’ ना देना ही अच्छा Politics & News

[ad_1]

1 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक

शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

हमें मालूम है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी खत्म नहीं हुआ है। वैसे, सीमाओं पर शांति है। दुश्मनी सीमाओं से हटकर क्रिकेट के क्षेत्र में शुरू हो गई है। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, तीसरी सबसे बड़ी सेना और सबसे विशाल आबादी वाले देश ने आतंकवाद के खिलाफ जो जंग शुरू की थी, उसका फैसला अब इस बात से किया जा रहा है कि वह पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेले कि न खेले। यह कॉलम न तो क्रिकेट के बारे में है, न खेलों के बारे में और न ही भारत-पाक रिश्ते के बारे में। वास्तव में यह हमारे भारी पाखंड की ओर ध्यान दिलाने की एक विनम्र कोशिश है।

मैं आपको टोक्यो के विशाल नेशनल स्टेडियम लेकर चलता हूं, जहां विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप की भाला फेंक प्रतियोगिता में पहुंचे 12 खिलाड़ियों में इस उपमहादेश के चार एथलीटों (दो भारतीय, एक पाकिस्तानी और एक श्रीलंकाई) के बीच पहला ऐतिहासिक मुकाबला हो रहा है।

उस दिन जब भाले फेंके जा रहे थे, तब सोशल मीडिया पर क्या कुछ चल रहा था, उस सब पर अगर आपने ध्यान दिया होगा तो पाया होगा कि भारत के नीरज चोपड़ा और सचिन यादव पाकिस्तान के अरशद नदीम से मुकाबला कर रहे थे, लेकिन इस पर कोई गुस्सा नहीं जाहिर किया जा रहा था।

यह हमें कुछ सोचने का मसाला देता है। ओलिम्पिक खेल 1896 में एथेंस में शुरू हुए थे, तबसे 130 साल बीत चुके हैं लेकिन दो अरब या दुनिया की एक चौथाई आबादी वाला हमारा उपमहादेश केवल तीन व्यक्तिगत ओलिम्पिक गोल्ड मेडल जीत पाया है। इन तीन खिलाड़ियों में से भी दो हैं नीरज चोपड़ा और अरशद नदीम, जो पिछले दिनों टोक्यो में फाइनल में पहुंचे थे।

सबसे पहले तो आपने उम्मीद की होगी कि इन खेलों में लोगों ने काफी दिलचस्पी ली होगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। उन्माद केवल इसको लेकर था कि भारत को पाकिस्तान के साथ खेलना चाहिए या नहीं। मैंने पाकिस्तानी मीडिया और सार्वजनिक बहसों पर भी नजर डाली। उनके लिए तो उनका ओलिम्पिक गोल्ड मेडलिस्ट और वर्ल्ड रेकॉर्ड होल्डर अपने सबसे बड़े भारतीय प्रतिद्वंद्वी से भिड़ने जा रहा था! लेकिन उनमें कोई खास खलबली नहीं थी। दरअसल, हमारा उन्माद केवल क्रिकेट को लेकर उभरता है।

मैं कहूंगा कि एक तरह से यह अच्छा भी है। पहलगाम कांड के शिकार जबकि अभी भी शोकग्रस्त हैं, तब राहत की बात है कि इंटरनेट और टीवी चैनलों वाली भीड़ सेना के जेसीओ नीरज चोपड़ा को पाकिस्तानी खिलाड़ी से मुकाबला करने पर परेशान नहीं कर रही थी।

क्रिकेट और एथलेटिक्स मुकाबलों को लेकर भावनाओं के उबाल में जो अंतर है उसकी एक वजह यह भी है कि हम क्रिकेट के दीवाने हैं, और यह वजह भी छोटी ही है। बाकी वजह या मुख्य मकसद तो सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं को उकसाने का शगल है, जिसे ‘एंगेजमेंट फार्मिंग’ कहा जाता है। इस मामले में, 24 घंटे उन्माद बढ़ाने के लिए क्रिकेट का खेल ओलिम्पिक की किसी प्रतियोगिता के मुकाबले कहीं ज्यादा मुफीद साबित होता है।

कुछ लोग पहलगाम कांड के शिकार हुए लोगों का अंतिम संस्कार करते उनके पिताओं या बिलखती विधवाओं के चित्र पोस्ट करते हुए सवाल करते हैं कि क्या पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलकर हम इन लोगों को न्याय दिला रहे हैं? इस पर मेरा सवाल है कि क्रिकेट न खेलकर और पाकिस्तान को मैच में जीत सौंपकर क्या हम उन्हें न्याय दिला पाएंगे? क्या हमने अपनी वायुसेना, थलसेना और नौसेना की संयुक्त शक्ति का प्रयोग करके उन्हें न्याय नहीं दिया?

बशर्ते आप कई पाकिस्तानियों की तरह यह न सोचते हों कि जैश और लश्कर के ध्वस्त मुख्यालय, दर्जन भर पाकिस्तानी हवाई अड्डों के विध्वंस, जलाए गए पाकिस्तानी रडारों का कोई मोल नहीं है। आतंक के खिलाफ जंग में हमारी सेना क्या नहीं हासिल कर सकती है, जो क्रिकेट हासिल कर सकता है?

खेलों के प्रति हमारी भावना एकेश्वरवादी है, क्रिकेट ही हमारा एकमात्र ईश्वर है। इस मामले में पवित्र आक्रोश जीतने से ज्यादा खेलने या बायकॉट करने को लेकर उभरता है। सोशल मीडिया न होता तो आप इसे बचकानी प्रवृत्ति मान कर खारिज कर सकते थे।

फर्क यह है कि यह प्रवृत्ति टीवी पर होने वाली बहसों पर भी हावी रहती है। दोनों तरफ प्राइम टाइम की हर बहस में यह ज्यादा से ज्यादा विद्वेषपूर्ण और कड़वी होती जाती है, जिनमें अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है और सीधे-सीधे साम्प्रदायिक आरोप तक उछाले जाते हैं।

कई लोग अब यह रुख अपना रहे हैं कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना राजनीतिक, रणनीतिक और सबसे अहम, नैतिक रूप से भी गलत है। ये चाहते हैं कि भारत ऐसे टूर्नामेंटों का बहिष्कार करे या पाकिस्तान को मैच जीतने दें।

यह प्रतिस्पर्द्धी खेलों के अपमान जैसा है। भारत आतंकवाद का शिकार है, यह बेशक एक बुरी बात है। तो क्या भारत पाकिस्तान को वॉकओवर देता रहे? यह पीड़ित होने की किस तरह की भावना है? इसका मतलब यह होगा कि पिछले 20 वर्षों में किसी भी खेल में जो पाकिस्तान भारत के साथ दस मुकाबलों में से केवल एक मुकाबला जीत सकता है, उसे अब बिना खेले जीत मिलेगी?

भारत की दो पीढ़ियां पाकिस्तान से हारते रहने के हमारे इतिहास से आक्रांत रही थीं। लेकिन पिछले 25 वर्षों में स्थिति उलट गई है। पिछले 20 वर्षों में टी-20 के 14 में से 11 मुकाबलों में भारत ने पाकिस्तान को हराया। पिछले एक दशक में पाकिस्तान के साथ एकदिवसीय मुकाबलों में भारत का स्कोर 8-1 का रहा है।

2017 में, ओवल के मैदान में चैंपियनशिप ट्रॉफी के फाइनल तक भारत का यह स्कोर 7-0 का था। पाकिस्तान की जीत अब दुर्लभ अपवाद ही बन गई है। क्या हम इसे एक नियम बना दें? पाकिस्तान को स्थायी विजेता टीम बनाने से क्या पहलगाम के पीड़ितों को न्याय दिया जा सकेगा?

एकतरफा बहिष्कार से हमारा फायदा नहीं होने वाला है… एकतरफा बहिष्कार से भारतीय क्रिकेट को ही नुकसान होगा और पाकिस्तान को जीत का तोहफा हासिल होगा। इससे भी बुरी बात यह कि हम एक नरम हुकूमत की तरह बर्ताव करते दिखेंगे। हमें यह सब करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि भारतीय क्रिकेट इस युद्ध का योद्धा नहीं है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

खबरें और भी हैं…

[ad_2]
शेखर गुप्ता का कॉलम: पाकिस्तान को ‘वॉकओवर’ ना देना ही अच्छा

Gurugram News: सील किए आरसीसी प्लांट अवैध रूप से चालू, हवा में घुल रहा जहर  Latest Haryana News

Gurugram News: सील किए आरसीसी प्लांट अवैध रूप से चालू, हवा में घुल रहा जहर Latest Haryana News

ट्रम्प बोले- NATO एयरस्पेस में रूसी विमान घुसें तो मारें:  यूक्रेन, रूस से अपनी जमीन वापस ले सकता; यूरोपीय देश रूसी तेल-गैस नहीं खरीदें Today World News

ट्रम्प बोले- NATO एयरस्पेस में रूसी विमान घुसें तो मारें: यूक्रेन, रूस से अपनी जमीन वापस ले सकता; यूरोपीय देश रूसी तेल-गैस नहीं खरीदें Today World News