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अभय कुमार दुबे का कॉलम: राजनीतिक दलों में नेतृत्व की दूसरी कतार लापता क्यों? Politics & News

अभय कुमार दुबे का कॉलम:  राजनीतिक दलों में नेतृत्व की दूसरी कतार लापता क्यों? Politics & News

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14 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

भाजपा की दिल्ली राज्य इकाई के कई नेताओं ने आलाकमान से अगले साल विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा मुहैया कराने की मांग की है। भाजपा पिछले 30 साल में वहां पर तीन बार किसी चेहरे के साथ (सुषमा स्वराज, हर्षवर्धन और किरण बेदी) भी चुनाव लड़ चुकी है, और बिना चेहरे के भी। चुनाव में जीत-हार अहम होती है, पर यहां मसला दूसरा है।

क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है कि जिस पार्टी को दिल्ली में लगातार चुनाव हारने के बावजूद 31 से 38 फीसदी वोट मिलते रहे हों, वह मदनलाल खुराना के बाद आज तक राजनीतिक मंच पर ऐसी कोई शख्सियत नहीं पेश कर पाई, जिसका नाम थोपा हुआ न लगे। यह प्रश्न दिल्ली और भाजपा का जरूर है, पर इसे यहीं तक सीमित नहीं माना जा सकता।

अब हमें सभी पार्टियों के साथ-साथ केंद्र और राज्य, दोनों के संदर्भ में नेताओं की अनुपस्थिति-उपस्थिति एवं उनके उत्थान-पतन की प्रक्रियाओं पर गंभीरता से गौर करना शुरू कर देना चाहिए। एक बात तो यह है कि बड़ा पद किसी को लाजिमी तौर पर नेता नहीं बना सकता।

अगर ऐसा होता तो नरसिंह राव, गुजराल, देवेगौड़ा, चंद्रशेखर की छवि बड़े नेता की होती। ये लोग अपनी-अपनी तरह से राजनीति में प्रभावी और आदरणीय थे, पर प्रधानमंत्री बनने के बावजूद इनके नाम पर वोट कभी नहीं मिले। इनमें केवल देवेगौड़ा ऐसे थे, जिनमें कर्नाटक के स्तर पर एक समुदाय की गोलबंदी करने की क्षमता थी, पर वे इसके परे नहीं जा पाए। इस लिहाज से चरण सिंह बड़े नेता थे।

अगर वे अल्पकाल के लिए प्रधानमंत्री न भी बनते, तब भी उन्हें नेता की मान्यता मिलती। वे अपनी बिरादरी से परे जाकर अपने लिए समर्थन जुटाने में सक्षम थे। इसी तरह न जाने कितने लोग मुख्यमंत्री रह चुके हैं, पर वोटों की गोलबंदी के लिहाज से उन्हें भी नेता नहीं माना जा सकता।

ऐसा प्रतीत होता है कि किसी के नेता होने का बीज इतिहास के किसी एक क्षण में राजनीति की जमीन में बोया जाता है। फिर किसी राजनीतिक दल, परंपरा या विचारधारा के कारखाने में उसकी शुरुआती रचना होती है। इसके बाद उसके चेहरे और बातों को बढ़ावा देने में पार्टी, प्रचार और प्रोत्साहन द्वारा नियोजित भूमिका निभाई जाती है। इतना सब हो जाने पर भी जरूरी नहीं कि जनता उसे फौरन तरजीह दे दे।

कुछ नेता ऐसे भी हुए हैं, जो चुनावी लिहाज से विफल थे, लेकिन एक लोकप्रिय और निर्विवाद नेता के रूप में उनकी मान्यता हमेशा संदेह से परे रही। उनकी आवश्यकता उनके विरोधियों को भी रहती थी। नेता को इतिहास के एक और क्षण का इंतजार करना पड़ता है जब लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं।

चुनाव जीत गए तो बड़ी बात है, लेकिन अगर हार गए तो भी नेता के तौर पर उसकी मान्यता दीर्घजीवी रहती है। आज राहुल गांधी ऐसी ही प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। नेता बनने की यह बहुमुखी प्रक्रिया उस समय भंग हो जाती है, जब पार्टी के भीतर अतिशय केंद्रीकरण करने वाला निरंकुश नेतृत्व उभर आता है।

भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी के उदय के बाद ऐसे हालात बनने लगे। किसी प्रदेश में कोई नया नेतृत्व खड़ा होते ही आलाकमान उस नई पौध को उखाड़कर देखता था कि कहीं वह ज्यादा तो नहीं पनप गया है। अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक अवसान के बाद भाजपा में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ। उनके कार्यकाल में भी कद्दावर क्षेत्रीय नेता नहीं उभरे।

उधर क्षेत्रीय राजनीति दलों की संरचना भी जबरदस्त रूप से केंद्रीकरण वाली साबित हुई। नतीजा यह निकला कि सर्वोच्च नेता की कृपा ही सब कुछ बनती चली गई। नए प्रभावशाली, स्वायत्त, पार्टी और विचारधारा के प्रति निष्ठावान लेकिन आजाद मिजाज के नेताओं के उभरने का सिलसिला बंद हो गया।

मुख्यमंत्रियों की हैसियत केंद्रीय नेता के प्यादे से अधिक नहीं रह गई। आज भाजपा केंद्र के साथ-साथ बहुत से राज्यों में भी सत्तारूढ़ है, पर सच यह है कि उस सत्ता की जड़ें प्रदेश में न होकर आलाकमान में हैं।

क्या यह अजीब बात नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र में पार्टियों की बहुतायत है, पर पार्टियों के भीतर परस्पर सम्मान के साथ होने वाली नेतृत्व की लोकतांत्रिक होड़ नदारद दिखाई पड़ती है। विधानमंडल और संसदीय दलों के नेता के लिए अब शायद ही कभी चुनाव होते हों। सारा काम आरोपित सहमति से चलाया जाता है। हमारी दलीय प्रणाली के लिए यह चिंताजनक है।

आज सत्ता भोग रहीं राजनीतिक पार्टियों में नेतृत्व की दूसरी कतार पूरी तरह से लापता दिखती है। राजशाही की तरह उत्तराधिकारियों की नियुक्ति कर दी जाती है, और जब-तब ऐसे युवराजों को उस पद से उतारा भी जाता रहता है।

  • ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नेतृत्व के टोटे का शिकार दिखने लगेगा। तब हम एक ऐसे दौर के लिए अभिशप्त होंगे, जब हमारे पास प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तो होंगे, पर नेता नहीं होंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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