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नंदितेश निलय का कॉलम: चैटबॉट से क्यों बातें करने लगे हैं हमारे बच्चे? Politics & News

नंदितेश निलय का कॉलम:  चैटबॉट से क्यों बातें करने लगे हैं हमारे बच्चे? Politics & News

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1 घंटे पहले

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नंदितेश निलय वक्ता, एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक

अभी तक तो पैरेंट्स इसी बात से परेशान रहे कि उनके बच्चे फोन बहुत देखते हैं, खेलते कम हैं। न वे किसी से घुल-मिल पाते हैं, और न ही अपने माता-पिता के साथ भावनात्मक वक्त बिता पाते हैं। लेकिन दु:ख-सुख या मन की परेशानियां तो कैद होने के लिए बनी नहीं होतीं। वे तो अभिव्यक्त होने के लिए बेचैन रहती हैं। बच्चे भी बहुत कुछ कहना चाहते हैं।

ऐसी परिस्थिति में अगर चैटबॉट पर सवार कोई बहुरुपिया स्त्री या पुरुष के वेश में काउंसलर बनकर उन बच्चों की भावनात्मक दुनिया में प्रवेश कर जाए तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि चैटबॉट पर वे काउंसलर उन बच्चों की समस्याओं को सुन रहे हैं और त्वरित समाधान देने से भी गुरेज नहीं कर रहे।

अब इन बच्चों के लिए एआई होमवर्क में सहायता करने का ही माध्यम नहीं रह गया है, बल्कि ऐसा साथी बन गया है, जो दोस्त बनकर उस तरह की भाषा बोलता और समझता है, जिस भाषा में वो सुनना और समझना चाहते हैं।

आज वह चैटबॉट बच्चों के मन में उठते किसी भी तरह के भावनात्मक या मेंटल हेल्थ से संबंधित विषयों पर सलाह दे रहा है। वह बच्चों को सुनता है, उनके प्रश्नों के उत्तर देता है और उनकी समस्याएं सुलझा भी रहा है। वह उन्हें आजादी देता है, कुछ भी पूछने की, अभिव्यक्त करने की। वह उन्हें घूरता नहीं, ऊंची आवाज में नहीं बोलता। तो वह बच्चा इस अनुभव को ज्यादा इंसानी समझने लगता है।

जब एल्गोरिदम इमोशन की दुनिया में प्रवेश करने लगे तो चिंता होनी चाहिए। उन बच्चों के अंदर वह आत्मविश्वास क्यों नहीं आ सकता कि उनके माता-पिता भी उनके लिए वह चैटबॉट बन सकते हैं, और उनके मन में उठते ज्वार-भाटे को समझ सकते हैं? शायद इसका उत्तर इतना आसान है नहीं।

अगर कोई बच्चा अपनी कक्षा में बुली से परेशान है या परीक्षा के रिजल्ट से। या कोई युवा कॉलेज में रैगिंग से या टीचर्स के धमकाने से, या कोई नए पनपते रिश्ते से तो फिर माता-पिता की प्रतिक्रिया बहुत तरह की हो सकती है। वह बच्चा या युवा आश्वस्त नहीं होता कि उसे या उसकी भावनाओं को सही ढंग से समझा जाएगा।

उसका अंतर्मुखी मन उसे उस चैटबॉट के पास ले जाता है, जो उसे वह कम्फर्ट देता है और पलक झपकते ही जवाब भी। वह उस माता-पिता की तरह नैतिकता का तर्क नहीं देता। वह तो उस बच्चे को हर प्रकार के प्रश्न पूछने का मौका देता है और फिर एक सहृदय जवाब भी तैयार रखता है। वह बच्चे को हर परिस्थिति में स्वीकार करता है।

पर बच्चा यह नहीं समझ पाता कि भावनाओं के उभार में वो स्पर्श, वो आलिंगन, वो पिता का कंधे पर हाथ रखना, वो मां का मस्तक चूमना, वो सबकुछ जो बहुत असर करता है, वो चैटबॉट से तो मिल नहीं सकता। लेकिन जब माता-पिता अपने बच्चे को वो स्पर्श, वो धैर्य, वो आवाज नहीं दे पाते तो चैटबॉट ही उन भावनाओं का स्रोत बन जाता है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह एल्गोरिदम नैतिकता के स्तर पर जाकर किसी उलझन या अंतर्द्वंद्व को संबोधित नहीं करता। वह तो सबकुछ उन बच्चों के मनोनुकूल ही कहना चाहता है। सही और गलत के बीच का फर्क या सही और सही नहीं के बीच का जो अंतर है, चैटबॉट नहीं समझाना चाहता। वह तो बस प्रश्नों का जवाब देता चला जाता है और उस उलझन की दुनिया में उन बच्चों की निर्भरता खुद पर बढ़ाता जाता है।

इसलिए सबसे पहले तो माता-पिता को और भावनात्मक रूप से सजग होने की जरूरत है और यह भी समझना जरूरी है कि बच्चे अब सिर्फ मोबाइल या स्क्रीन देख नहीं रहे, बल्कि चैटबॉट उनके जीवन का भावनात्मक हिस्सा बनता जा रहा है।

जबकि वह भावनात्मक कमान तो माता-पिता को संभालनी है; उनको कुछ ज्यादा संवेदनशीलता से सुनकर, समझकर और कुछ ज्यादा उनके जीवन में शामिल होकर। यह जरूरी है कि बच्चों की स्मृतियों का निर्माण इंसानी भावनाएं करें, कोई मशीन नहीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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