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शीला भट्ट का कॉलम: एक नए रास्ते पर चल पड़ी है विदेश नीति Politics & News

शीला भट्ट का कॉलम:  एक नए रास्ते पर चल पड़ी है विदेश नीति Politics & News

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3 घंटे पहले

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शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार

दुनिया भारत को देख रही है। ट्रम्प का 50% टैरिफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय कूटनीति को एक नए मार्ग पर चलाने के लिए मजबूर कर रही है। पिछले सात महीनों से ट्रम्प की कूटनीति का उद्देश्य उनके वोटरों को खुश करना, अमेरिकी कर्ज को घटाना और “मैक अमेरिका ग्रेट अगेन’ को आगे बढ़ाना रहा है। इसकी हलचल पूरी दुनिया में महसूस हो रही है।

भारत ट्रम्प की व्यापार योजनाओं और अनिश्चित मिजाज का शिकार है। अब जब मोदी को निर्णय लेने पड़ रहे हैं, तो वे वही कर रहे हैं जो उन्हें सबसे अच्छा आता है- सार्वजनिक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों का उपयोग अपने घरेलू समर्थन-आधार को मजबूत करने के लिए करना।

मोदी का राष्ट्रवादी वोट बैंक निश्चित रूप से इस सबमें उनके पीछे खड़ा होगा। विडम्बना यह है कि इससे पहले बड़ी संख्या में मोदी समर्थक भारत-अमेरिका सम्बंधों को मजबूत करने के पक्ष में थे। लेकिन ट्रम्प के बड़े विश्वासघात ने उनमें अविश्वास के बीज बो दिए हैं। 1971-1972 में इंदिरा गांधी के बाद, शायद ही कोई भारतीय नेता ऐसे मोड़ पर आया हो, जहां उसे ऐसा कठिन चयन करना पड़ा हो। मोदी ने ट्रम्प के भारत विरोधी रुख के खिलाफ खड़े होने का निर्णय ले लिया है।

मोदी ने खुद अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में अपनी नई कूटनीतिक पहल का संकेत दिया। “मैं किसी भी ऐसी नीति के खिलाफ दीवार की तरह खड़ा हूं, जो भारतीय किसानों, मछुआरों और पशुपालकों को नुकसान पहुंचाती है,’ उन्होंने कहा। इसी का नतीजा था कि एस. जयशंकर मॉस्को में पुतिन से आत्मविश्वास के साथ मिले। भारत-रूस संबंधों में एक गुणात्मक बदलाव उभर रहा है।

मोदी की प्रस्तावित चीन यात्रा भी इस बात का संकेत है कि भारत अमेरिकी टैरिफ के हमले से कमजोर अर्थव्यवस्था को सम्भालने के लिए क्या कुछ करने को तैयार है। प्रधानमंत्री संकट में लचीलापन अपनाते हैं। टीम मोदी, जैसा एक सूत्र ने कहा, व्यापार और टैरिफ से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले चार शक्तिशाली मंत्रियों से बनी है।

वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल को वॉशिंगटन में व्यापार समझौते और टैरिफ मुद्दों पर बातचीत की जिम्मेदारी दी गई है। अन्य सदस्य हैं जयशंकर, कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण। वे मिल रहे हैं और चर्चा कर रहे हैं।

टैरिफ युद्ध ने मोदी को अमेरिका समर्थक और चीन विरोधी लॉबी का निशाना बना दिया है। कई विश्लेषक- जो मोदी सरकार की राजनीति के आलोचक रहे हैं- चीन से संवाद को रातोंरात रीसेट करने को पचा नहीं पा रहे हैं।

खासकर इन आरोपों के बाद कि चीन ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान की मदद की थी। वे जोर देकर कहते हैं कि मौजूदा हालात के लिए मोदी की कूटनीति जिम्मेदार है। उनका मानना है कि चीन के खिलाफ रुख नरम करने की भारत को कीमत चुकानी होगी।

पाकिस्तान को मोहरे की तरह इस्तेमाल करना और नई दिल्ली के रूसी तेल आयात पर ट्रम्प का रुख भारत की पूरी राजनीतिक व्यवस्था के लिए ‘बहुत उलझनभरा’ है। मोदी के आलोचक मानते हैं भारत विवेक से ज्यादा मजबूरी में फैसले ले रहा है।

वरना कैसे रातोंरात में क्वाड ठंडे बस्ते में चला गया और ब्रिक्स उपयोगी हो गया? इस तरह की दलीलें अर्थहीन हो गई हैं, क्योंकि संकट गहराता जा रहा है, जो रोजगार बाजार और जीडीपी को भी प्रभावित करेगा। मोदी के वार्षिक संयुक्त राष्ट्र महासभा कार्यक्रम में शामिल होने की संभावना नहीं है। क्वाड नेताओं की बैठक की तारीखें भी अभी तय नहीं हुई हैं।

और भी तीखे आलोचक वे हैं, जिन्होंने जीवनभर भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने में लगाया। वे आरोप लगाते हैं कि मोदी और जयशंकर की जोड़ी ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल की योजनाओं को आंकने में विफल रही। हालांकि, मोदी-जयशंकर आलोचनाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं। मोदी के पास समय नहीं है। वैश्विक बाजार में उपयुक्त विकल्प मौजूद नहीं हैं। इस समय चीन और रूस भारत की जरूरतें पूरी कर रहे हैं।

मोदी यह सुनिश्चित करने के लिए जल्दी में हैं कि भारतीय जीडीपी तेजी से नीचे न गिरे। कई विशेषज्ञों ने आधा प्रतिशत जीडीपी गिरने की आशंका जताई है। सरकार के एक सूत्र ने कहा, भारत के चीन के साथ इतने निकट संबंध होंगे कि ट्रम्प द्वारा पैदा किए गए भारी संकट को संभाल सके, वहीं भारत अपने दीर्घकालिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए सावधानी बरतेगा।

गौरतलब है कि इस महीने के अंत में मोदी की चीन यात्रा, एससीओ शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए उनकी जापान यात्रा के साथ जुड़ी हुई है। उनकी योजना है कि ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल से टूटे भरोसे को पीछे छोड़कर वास्तविकताओं को तेजी से स्वीकार कर नई योजनाएं बनाई जाएं। निजी तौर पर, रायसीना हिल पर भी यह माना जा रहा है कि भारत ने राष्ट्रपति ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल और उनके एजेंडा को समझने में गलती की, जैसा कि दुनिया की कई और राजधानियों में हुआ है।

भारत का चीन, रूस, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के साथ बहुपक्षीय संबंधों में नया रुख ट्रम्प की वजह से है, जिन्होंने मोदी को दो निराशाजनक विकल्प दिए। पहला, क्या कोई भारतीय प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से मान सकता है कि एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने उसे पाकिस्तान को लेकर रणनीतिक फैसला लेने के लिए मजबूर किया?

भारत-पाकिस्तान रिश्तों को लेकर ट्रम्प की चौंकाने वाली असंवेदनशीलता ही असली समस्या है। दूसरा, फरवरी 2025 में वॉशिंगटन दौरे के दौरान ट्रम्प ने भारतीय कृषि और डेयरी बाजार में प्रवेश मांगा। बाद में हुई व्यापार वार्ताओं में यह मुद्दा उठाया गया।

तब से हालात बिगड़ते ही गए। भारत में कृषि का मुद्दा रक्षा जितना ही संवेदनशील है। ट्रम्प की टीम भारत की डेयरी सहकारी संरचना और कृषि समाज-आर्थिक ढांचे की वास्तविक स्थिति समझे बिना, ऐसी मांग कर रही है जो कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री मान ही नहीं सकता।

भारत के लोग अमेरिकी उत्पादों को नहीं अपनाते… ट्रम्प दिखाना चाहते थे कि देखो, मेरे दोस्त मोदी ने 140 करोड़ लोगों का बाजार अमेरिका के लिए खोल दिया। उन्होंने गलत सोचा कि भारतीय उपभोक्ता मकई, सोया, बीफ, डेयरी उत्पाद अपना लेंगे। कृषि क्षेत्र में ऐसी रियायतें देना किसी भी प्रधानमंत्री के लिए असंभव है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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