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भास्कर ओपिनियन: भारत के प्रयासों से रूस- यूक्रेन वार्ता टेबल पर आने को तैयार Politics & News

भास्कर ओपिनियन:  भारत के प्रयासों से रूस- यूक्रेन वार्ता टेबल पर आने को तैयार Politics & News

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16 घंटे पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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ढाई साल तक लड़ने के बाद आख़िरकार रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन को समझ में आ रहा है कि जंग से किसी का भला नहीं होने वाला। शांति से ही विकास का रास्ता निकलता है। लगभग ढाई साल पहले शांति युग के सूत्रपात का दावा करने वाली यह दुनिया देखती रह गई थी और दो राष्ट्राध्यक्षों की ज़िद या तेलस्वार्थ ने अपने चरम पर पहुँचकर युद्ध का रूप ले लिया था।

ऐसा नहीं है कि युद्ध टालने की कोशिशें नहीं की गईं लेकिन ये तमाम कोशिशें एकतरफ़ा थीं। अमेरिका और उसके साथी देश यूक्रेन को नाटो में मिलाने की गरज से उसके साथ खड़े हो गए थे और पुतिन के ग़ुस्से की यही सबसे बड़ी वजह थी। जिस तरह श्रीकृष्ण अंतिम मध्यस्थता करने हस्तिनापुर गए थे और सुई की नोक बराबर भी ज़मीन न देने का दुर्योधन का टका सा जवाब लेकर लौट आए थे वैसे ही बाइडन को भी लौटना पड़ा था। हालाँकि श्रीकृष्ण युद्ध टालने के पक्षधर थे जबकि बाइडन का मत बहुत हद तक एकतरफ़ा था।

अमेरिका यूक्रेन का समर्थन करता रहा और रूस का ग़ुस्सा बढ़ता गया। अमेरिका चूँकि यूक्रेन के साथ था इसलिए चीन ने रूस और उसके राष्ट्रपति पुतिन के ग़ुस्से को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक भारत ही था जो न अमेरिका से डरा और न ही चीन से। उसने अपने शांति प्रयास जारी रखे। वह अमेरिका के दबाव के बावजूद इस युद्ध में तटस्थ बना रहा।

भारत की यही भूमिका दुनियाभर में सराही गई। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं जो रूस भी गए और यूक्रेन भी गए। दोनों राष्ट्रपतियों से मिले। शांति का संदेश दिया और भारत का यह मंत्र दोनों को अच्छी तरह समझाने में कामयाब रहे कि युद्ध आख़िर किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। बातचीत ही समाधान की धुरी है और दोनों देशों को यह बात समझ में आ गई।

पुतिन अब यूक्रेन से बात करने को तैयार हो गए हैं और यह भी कह रहे हैं कि इस बातचीत में भारत मध्यस्थता कर सकता है। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की तो भारत की भूमि पर शांति वार्ता करने का सुझाव रख चुके हैं।

1919 से 1939 की दुनिया में ब्रिटेन एक महाशक्ति था, लेकिन निर्द्वंद्व नहीं। उसके बाज़ू में फ़्रांस था, जर्मनी और इटली थे, सोवियत संघ और जापान भी था। रूस – यूक्रेन युद्ध के समय कहा जा सकता है कि अकेला अमेरिका था। और कोई नहीं था। लेकिन अमेरिका कमजोर हो चुका था और उसकी निष्पक्षता भी शक के दायरे में आ चुकी थी। यही वजह है कि वह युद्ध रोक पाने में नाकामयाब रहा।

जो काम दुनियाभर को मिलकर करना था वह अकेले भारत ने कर दिखाया। कम से कम वार्ता टेबल पर आने के लिए तो अब दोनों देश तैयार हुए! नतीजा चाहे जो हो, बातचीत का माहौल बनेगा तो कम से कम युद्ध विराम का रास्ता भी खुल ही जाएगा।

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