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- Aarti Jerath’s Column Why Are Dignitaries Unable To Give Up Their Attachment To Government Bungalows?
आरती जेरथ राजनीतिक टिप्पणीकार
अगर भारत के मुख्य न्यायाधीश के आधिकारिक आवास को खाली कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका की मदद मांगनी पड़े तो यह एक उदास कर देने वाला परिदृश्य है। हाल ही में जब यह विवाद सामने आया तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सेवानिवृत्त होने के आठ महीने बाद भी बंगला खाली नहीं करने को लेकर यह दलील दी कि दो उनकी दो डिफ्रेंटली-एबल्ड बेटियों के लिए एक अनुकूल आवास ढूंढने में उनके परिवार को दिक्कत हो रही है।
उनकी दोनो बेटियां व्हीलचेयर का सहारा लेती हैं, जिसके लिए विशेष रैम्प और चौड़े दरवाजों की दरकार है। जाहिर है कि दिल्ली में देश के शीर्ष-कुलीनों की आश्रयस्थली लुटियंस जोन के बाहर ऐसे लम्बे-चौड़े बंगले मिलना लगभग नामुमकिन है।
पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ और उनके परिवार के प्रति पूरी सहानुभूति है। लेकिन यह सवाल पूछा जा सकता है कि अपने विशेष जरूरतों वाले परिवार के लिए उन्होंने पहले से ही उस दिन की तैयारी क्यों नहीं की, जब उन्हें रिटायर होने के बाद बंगला खाली करके सर्वोच्च अदालत के अपने उत्तराधिकारी को सौंपना था? लेकिन वे अकेले नहीं हैं। बहुत से केंद्रीय मंत्री और सांसद भी अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी तब तक लुटियंस में बने रहते हैं, जब तक कि उनसे बंगला खाली करने का आग्रह न किया जाए।
रालोद के संस्थापक दिवंगत अजीत सिंह और लोजपा नेता चिराग पासवान का ही उदाहरण लीजिए। उन्होंने भी बंगला खाली करने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि इन बंगलों को उनके लोकप्रिय पिताओं के स्मारक के तौर पर परिवर्तित कर दिया जाए।
जहां अजीत सिंह पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र थे, वहीं चिराग पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे हैं। बड़े नाटकीय हालात निर्मित होने के बाद उन्हें घर खाली करना पड़ा। हालांकि चिराग पासवान उसके बाद एनडीए में शामिल होकर मंत्री बने और उन्होंने लुटियंस में फिर से जगह मिल गई।
पूर्व शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक अपनी गाय-भैंसों के साथ बंगले में रहते थे। लेकिन मंत्रिमंडल से छुट्टी होने के छह माह बाद सरकार को ही हाउसिंग अधिकारियों को भेजकर उन्हें वहां से निकलवाना पड़ा। मजे की बात है कि उस बंगले पर संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी नजर थी।
उन्होंने इसका कारण इस बंगले से भावनात्मक लगाव होना बताया, क्योंकि जब उनके पिता दिवंगत माधवराव सिंधिया कांग्रेस सरकार में मंत्री थे तो ज्योतिरादित्य इसी बंगले में पले-बढ़े थे। उन्होंने जैसे-तैसे यह बंगला अपने नाम आवंटित भी करा लिया। हालांकि निशंक के बंगला खाली करने और उसकी साज-सज्जा पूरी होने तक उन्हें करीब एक वर्ष लुटियंस के बाहर रहना पड़ा।
कांग्रेस के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद के पास आज कोई आधिकारिक पद नहीं है, लेकिन वे अभी तक सरकारी बंगले में जमे हुए हैं। माना जा सकता है कि कांग्रेस छोड़ने के बाद राहुल गांधी की लगातार आलोचना करने के लिए उन्हें यह उपहार दिया गया है!
यकीनन, लुटियंस के बंगलों का अपना एक सम्मोहन है। एक बार कोई वहां आया तो उसे छोड़ना नहीं चाहता। आखिरकार इस जोन में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सत्ताधारी दल के अति-महत्वपूर्ण लोग जो रहते हैं। औपनिवेशिक काल के इन महलनुमा बंगलों में बड़े-बड़े हरी घास के गलीचे हैं।
सड़कों पर कतारबद्ध घने पेड़ और गोलाकार सर्कल हैं, जो वसंत में अनेक रंग के फूलों से भर जाते हैं। जहां शेष दिल्ली की जनता टूटी सड़कों, पानी की किल्लत, कचरे की दुर्गंध, चोरी और अन्य अपराधों से जूझती है, वहीं लुटियंस में केंद्रीय सुरक्षा बलों और दिल्ली पुलिस की हमेशा चौकीदारी रहती है।
दुनिया के कुछ ही ऐसे लोकतांत्रिक गणराज्य हैं, जिन्होंने अपने मंत्रियों, सांसदों, जजों और शीर्ष अधिकारियों के लिए इस तरह से किराया-मुक्त आवासीय क्षेत्र बना रखे हैं। इस तरह के विशेषाधिकारों से एक अभिजात्य-मानसिकता पैदा होती है। सत्ताधारियों में अधिकार-सत्ता का भाव उत्पन्न होता है। वहीं लुटियंस की किलेबंदी में समानता का सिद्धांत पूर्णत: लुप्त हो जाता है।
पूर्व सीजेआई के मामले ने लुटियंस नामक इस औपनिवेशिक स्थान को लेकर पुरानी बहस को फिर से जन्म दे दिया है। दु:खद है कि राजधानी में कुछ सड़कों के नाम जरूर बदल दिए गए हैं, लेकिन अंग्रेजों द्वारा बसाई गई नई दिल्ली को नए नजरिए से विकसित करने की इच्छाशक्ति कभी नहीं दिखाई गई है।
लुटियंस में बैरिकेडिंग और बढ़ती सुरक्षा के चलते सार्वजनिक स्थान सिकुड़ते जा रहे हैं। इंडिया गेट पर भी अब खाना, चटाई और पालतू जानवर तक ले जाने पर पाबंदी लगा दी गई है। लुटियंस जोन से आम आदमी बहुत दूर है! (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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