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- N. Raghuraman’s Column How Did You Enter Your First Day At The Office?
एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
वर्ष 1997 में विवेक खांडेकर को केरल के वन क्षेत्र स्थित मल्लपुरम जिले में प्रोबेशनरी ऑफिसर के तौर पर भेजा गया। वह जंगल के अंदरूनी हिस्सों में गए और वहां उन्हें सुनने के लिए चारों ओर स्टाफ के लोग खड़े थे। लेकिन उनके और स्टाफ के बीच भाषा की बाधा थी। मराठीभाषी खांडेकर, दक्षिण भारतीय भाषाओं के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे।
हालांकि उन्हें मलयालम, तमिल, तेलुगू और कन्नड़ के कुछ शब्द पता थे, लेकिन वह इनमें से कोई भी भाषा बोल नहीं सकते थे। सबसे पहले विवेक ने सभी को अपना परिचय देने और काम की प्रकृति के बारे में कुछ बताने को कहा।
चूंकि वह लिखने के लिए पेन लाना भूल गए थे, तो उन्होंने कहा, ‘पेन वेनुमं’। उन्होंने ये तमिल में कहा था। चूंकि मलयालम व तमिल के कुछ-कुछ शब्द समान होते हैं, इसलिए वहां मौजूद हर व्यक्ति की भौहें तन गईं। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और कोई भी पेन लाने के लिए अपनी जगह से नहीं हिला।
विवेक आश्चर्यचकित थे और उन्होंने आवाज बुलंद कर फिर वही बात दोहराई। कर्मचारी एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तीसरी बार जब उन्होंने वही बात दोहराई तो वे सभी अपनी जीपों में जाकर बैठ गए और टीम के सदस्यों में से एक ने कहा कि चलो, वापस दफ्तर चलते हैं। वहीं पर बात करेंगे। कार्यालय पहुंचते ही विवेक के बॉस ने उन्हें बुलाकर पूछा कि ‘आपने इन लोगों से क्या कहा?’
विवेक ने वही वाक्य दोहरा दिया। इस पर वन अधिकारी जोरों से हंसे और बताया कि तमिल में इसका अनुवाद होता है कि ‘महिला चाहिए’। आज विवेक महाराष्ट्र में सामाजिक वानिकी विभाग में प्रधान मुख्य वन संरक्षक हैं। शुक्रवार सुबह नाश्ते पर मेरी मुलाकात उनसे हुई।
इस वाकये से मुझे 1930 में जन्मी डॉ. स्नेह भार्गव की याद आ गई, जो रेडियोलॉजिस्ट बनने वाली पहली भारतीय महिलाओं में से एक थीं। यह वही महिला थीं, जिन्होंने भारत सरकार के उच्च अधिकारियों को देश में सीटी स्कैनर लाने के लिए राजी किया था। उस समय तक मरीज के शरीर के भीतर देखने के लिए या तो एक्स–रे होता था अथवा उसे काट कर खोलना पड़ता था।
वह प्रगति के पायदान चढ़ीं और एम्स के दशकों के इतिहास में अब तक की पहली महिला निदेशक बनीं। 1990 में एम्स से रिटायर होने के बाद डॉ.भार्गव ने दिल्ली में दो शीर्ष अस्पतालों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 90 की उम्र में भी वह काम से कभी रिटायर नहीं हुई थीं। लेकिन कोविड-19 के नियमों के चलते उन्हें रिटायर होना पड़ा, क्योंकि वह इस उम्र में अस्पताल में काम नहीं कर सकती थीं।
अपने इस नए खाली समय का उपयोग उन्होंने एक किताब लिखने में किया, जिसमें पाठकों से एक स्पष्ट और खुली बातचीत की गई। संभवत: यह किताब भारतीय चिकित्सा के महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सबसे बेहतर आत्मकथा होगी। पुस्तक मई 2025 में जारी हुई, जिसका शीर्षक है, ‘द वुमन हू रेन एम्स: द मेमोयर्स ऑफ ए मेडिकल पायनियर।
उनके करियर का सबसे रोचक अनुभव 1984 में एम्स निदेशक के तौर पर पहला दिन था। पद संभालने के कुछ ही मिनट बाद उन्हें पहला मरीज जो मिला, वो कोई और नहीं बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थी। गोली लगने के बाद उन्हें एम्स लाया गया था। उन्हें 31 अक्टूबर 1984 को सुबह 9.20 बजे गोली मारी गई थी।
मैं समाचार पत्र “द डेली’ के कार्यालय में अपना पहला दिन कभी नहीं भूल सकता, जो मुम्बई का एक टेबलॉयड था। यह 12 मार्च 1993 का दिन था, जब मेरे शहर मुंबई में 13 धमाके हुए। इनमें 257 लोगों की मौत हो गई और 700 घायल हुए। धमाकों में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज, होटल और अन्य सार्वजनिक स्थलों को निशाना बनाया गया था। इसके अनुभव मैं भविष्य में कभी अपने कॉलम में साझा करूंगा।
फंडा यह है कि कार्यालय में पहला दिन चौंकाने वाला, आश्चर्यचकित करने वाला, सुखद और थकान भरा हो सकता है। क्या आपने अगली पीढ़ी से साझा करने के लिए इसे डॉक्टर भार्गव जैसे लिखा है। अगर नहीं किया है तो शुरू कर दें, क्योंकि यदि आपने कई सारे संस्थानों में काम किया है तो आपका हर पहला दिन अलग हो सकता है।
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एन. रघुरामन का कॉलम: आपने दफ्तर का पहला दिन कैसे दर्ज किया?