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डेरेक ओ ब्रायन का कॉलम: संसद का विशेष सत्र बुलाने से ऐतराज क्यों किया जा रहा? Politics & News

डेरेक ओ ब्रायन का कॉलम:  संसद का विशेष सत्र बुलाने से ऐतराज क्यों किया जा रहा? Politics & News
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  • Derek O’Brien’s Column Why Is There Objection To Calling A Special Session Of Parliament?

50 मिनट पहले

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डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं

इस सप्ताह 17 दलों के नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर जून में संसद का विशेष सत्र बुलाने का आग्रह किया। इसके कुछ ही घंटों में सरकार ने 21 जुलाई से शुरू होने वाले मानसून सत्र की तारीखों की जल्दबाजी में घोषणा कर दी, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि विशेष सत्र की मांग को ठुकरा दिया गया है।

आम तौर पर, संसद सत्र की घोषणा सत्र से लगभग 20 दिन पहले की जाती है। लेकिन मानसून सत्र की घोषणा 47 दिन पहले ही कर दी गई है! जब यह लेख लिखा जा रहा था, तब विपक्ष के 250 और सांसद अपने नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे पत्र का समर्थन कर रहे थे। पहलगाम में हुई त्रासदी के तीन दिन बाद कपिल सिब्बल ने सबसे पहले विशेष सत्र की मांग उठाई थी।

संविधान के अनुच्छेद 85 (1) में प्रावधान है कि राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के दोनों सदनों को ऐसे समय और स्थान पर बैठक के लिए बुलाएंगे, जिसे वे उचित समझें…। विपक्षी दलों द्वारा हस्ताक्षरित पत्र प्रधानमंत्री को संबोधित है। हां, विशेष सत्र बुलाना सरकार का निर्णय है।

जब सांसद विशेष सत्र के लिए कहते हैं, तो संसदीय कार्य मंत्रालय स्थिति का आकलन करने के बाद (और सत्र की आवश्यकता को स्वीकारते हुए) तारीखों और सत्र की अवधि के प्रस्ताव सहित नोट तैयार करता है। इसे संसदीय मामलों की कैबिनेट समिति के समक्ष रखा जाता है। यदि प्रस्ताव को प्रधानमंत्री अनुमोदित करते हैं तो मंत्रालय इसे राष्ट्रपति को भेजता है, जो औपचारिक रूप से सत्र की तारीखों को मंजूरी देते हैं और घोषणा करते हैं।

नियम-पुस्तिका में भले ही विशेष सत्र का कोई उल्लेख न हो, लेकिन इसके कई उदाहरण हैं। 1972 में स्वतंत्रता के 25 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में एक बैठक बुलाई गई थी। 1992 में भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में संसद ने मध्यरात्रि सत्र आयोजित किया था।

1997 में स्वतंत्रता के 50 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में विशेष सत्र बुलाया गया था। 2014 से अब तक तीन विशेष सत्र बुलाए जा चुके हैं। एक, 1949 में संविधान को अपनाने के उपलक्ष्य में 2015 में दो दिवसीय सत्र। दो, 2017 में जीएसटी लागू करने के लिए मध्यरात्रि सत्र। तीन, 2023 में नए संसद भवन के उद्घाटन के उपलक्ष्य में पांच दिवसीय सत्र। इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक भी पारित किया गया था।

ऐसे कई मौके आए हैं, जब सरकारों ने इस नियमित प्रक्रिया को तोड़ने में कोई तत्परता नहीं दिखाई है। 2006 में मुंबई लोकल धमाकों में 180 से ज्यादा लोग मारे गए थे। संसद ने प्रतिक्रिया देने से पहले अपने अगले निर्धारित सत्र का इंतजार किया।

2008 के मुंबई हमलों के बाद भी संसद तभी फिर शुरू हुई, जब पहले से निर्धारित सत्र आहुत हुआ। लेकिन संसद को पहलगाम, पुंछ, उरी, राजौरी और उसके बाद की घटनाओं पर तुरंत विचार-विमर्श करना चाहिए।

यहां सबसे ठोस मिसाल यह है कि 1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान विपक्ष के तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने एक विशेष सत्र की मांग की थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस अनुरोध पर सहमत हुए और सत्र तब आयोजित किया गया, जब संघर्ष अभी भी जारी था। 165 सदस्यों ने बहस में भाग लिया, युद्ध और सरकार की नीति पर खुली चर्चा हुई।

पिछले 15 सालों में ऐसी कई संसदीय बानगियों को नजरअंदाज किया गया है। तीन उदाहरण देखें। एक, लोकसभा में उपसभापति का पद 2019 से खाली है। दो, पहले 10 में से सात विधेयक समितियों को जांच के लिए भेजे जाते थे, अब 10 में से सिर्फ दो विधेयक ही जाते हैं।

तीन, कृषि कानून जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों के पारित होने के दौरान विपक्षी सांसदों को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग के उनके अधिकार से वंचित कर दिया गया। विधायिका को हा​शिए पर रखने की इस प्रवृत्ति का भी एक इतिहास रहा है।

2001 से 2012 तक गुजरात की विधानसभा का ट्रैक रिकॉर्ड देखें। तत्कालीन मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य विधानसभा सबसे कम बार बैठी- गुजरात के किसी भी पिछले मुख्यमंत्री से कम। इस अवधि में, गुजरात विधानसभा में बैठकों की औसत संख्या एक साल में 30 से भी कम थी।

ऐसे में क्या आश्चर्य कि इस सरकार ने विशेष सत्र बुलाने से पूरी तरह परहेज किया है? मुझे मिडिल स्कूल में अपने नागरिक शास्त्र के शिक्षक की याद आती है। उन्होंने ही सबसे पहले मुझसे कहा था कि सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है और संसद लोगों के प्रति। ऐसे में जब संसद को ही दरकिनार कर दिया जाए तो सरकार किसके प्रति जवाबदेह होगी?

1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान विपक्ष के अटल बिहारी वाजपेयी ने विशेष सत्र की मांग की थी। प्रधानमंत्री नेहरू सहमत हुए और सत्र तब आयोजित किया गया, जब संघर्ष अभी भी जारी था। 165 सदस्यों ने खुली चर्चा की। (ये लेखक के अपने विचार हैं। इस लेख के सहायक शोधकर्ता चाहत मंगतानी और आयुष्मान डे हैं)

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