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एन. रघुरामन का कॉलम: सफलता हमेशा त्याग के कंधे पर टिकी होती है Politics & News

एन. रघुरामन का कॉलम:  सफलता हमेशा त्याग के कंधे पर टिकी होती है Politics & News

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4 मिनट पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

1981 की फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ का एक दृश्य याद करें, जिसमें मायूस सपना (रति अग्निहोत्री) अपने कमरे की लाइट बार-बार बंद-चालू करके वासु (कमल हासन) को संकेत देती हैं। मुझे हाल ही में दक्षिण भारत के मंदिरों के शहर कुम्भकोणम- जो कि मेरा गृहनगर भी है- की अपनी यात्रा के दौरान यह याद आया।

रात के 8 बज रहे थे और तेज हवा बह रही थी। स्ट्रीट लाइटें वही कर रही थीं, जो सपना ने वासु के लिए किया था। वे अचानक जल-बुझ जा रही थीं। जब वे बुझ जातीं तो सड़क पर अंधेरा छा जाता। मेरे पीछे 200 साल पुराना एक स्कूल था। मैंने 88 वर्षीय जे. नारायणन को देखा, जो कई शीर्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम कर चुके सेवानिवृत्त पेशेवर हैं।

वे लोहे के एक गेट को पकड़कर अपना सिर उस पर ​टिकाए हुए थे। उन्हें देखकर किसी को लग सकता था कि शायद उन्हें चक्कर आ रहा होगा और इसलिए वे गेट का सहारा लेकर खड़े होंगे। लेकिन मुझे यह कुछ अलग लगा, इसलिए मैं उनके पास गया। वास्तव में वे स्कूल के प्रति अपना सम्मान प्रकट कर रहे थे।

मैंने पूछा, क्यों। उन्होंने बताया कि उन्होंने 72 साल पहले यहीं से अपनी एसएसएलसी (ग्यारहवीं कक्षा) की परीक्षा पास की थी। वे अपनी दिवंगत मां रुक्मिणी अम्मल के दूसरे बेटे थे। उस समय उनके बड़े भाई दूसरे गांव में अपने मामा के घर पर बड़े हो रहे थे। नारायणन को उस साल परीक्षा देनी थी और उनके परिवार के पास फीस भरने के 15 रुपए भी नहीं थे।

तब उनकी मां ने अपनी थाली (दक्षिण भारतीय संस्कृति में मंगलसूत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा, जो हमेशा चेन के केंद्र में होता है) गिरवी रख दी थी। जो लोग सोने की चेन नहीं खरीद सकते, वे थाली को पीले, मोटे धागे में बांधते हैं।

थाली आमतौर पर किसी भी आकार के 1 ग्राम सोने से बनी होती है। उसका आकार परिवार की संपत्ति के आधार पर तय होता है। तमिल संस्कृति में प्रथा है कि जो लोग उस 1 ग्राम सोने को भी नहीं खरीद सकते, वे उस पीले धागे में थाली के बजाय हल्दी का डंठल बांध सकते हैं।

फीस के भुगतान में देरी होने के बावजूद स्कूल ने नारायणन को दाखिला दिया। उन्होंने परीक्षा पास की और बॉम्बे (अब मुंबई) चले गए, जहां आगे की पढ़ाई करते हुए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों में निदेशक के स्तर तक बढ़े। वे जब भी कुम्भकोणम आते हैं तो मंदिर के साथ ही स्कूल में भी अपनी आदरांजलि व्यक्त करने जाते हैं।

वे अपने उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए शिक्षकों और अप्रत्यक्ष रूप से मां का आभार व्यक्त करते हैं। आज उनके बच्चे और नाती-पोते भी देश-विदेश में वरिष्ठ पदों पर हैं। वहां से जाने से पहले उन्होंने कहा कि अगर यह स्कूल नहीं होता तो वो जीवन में कुछ नहीं बन पाते और ऐसा कहते-कहते उनकी आंखें भर आईं।

अचानक बत्ती गुल हो गई और अंधेरा छा गया तो उनका ड्राइवर दौड़कर आया और उन्हें सम्भालने लगा ताकि वे गड्ढेदार सड़कों पर गिर ना पड़ें। उसने मुझसे कहा, सर हमेशा ऐसा ही करते हैं, हर बार यहां आने पर वे अपने स्कूल का आभार जताना नहीं भूलते।

मुझे यह घटना तब याद आई, जब मैंने अहमदाबाद के दो भाइयों की वह अनोखी कहानी सुनी, जिसमें बड़े भाई की लगन ने छोटे को सफलता दिलाई थी। 27 वर्षीय दीपेश केवलानी ने बहुत कम उम्र में पिता को खो दिया था। 12वीं कक्षा से ही वे जूतों की एक दुकान में काम करने लगे थे।

उन्हें एक सरकारी अस्पताल में चौकीदार की नौकरी मिली और 19000 रुपए के वेतन पर वे परिवार का भरण-पोषण करने लगे, ताकि उनका 24 साल का छोटा भाई दिनेश केवलानी आईआईएम लखनऊ में अपनी पढ़ाई पूरी कर सके। दिनेश की पढ़ाई पूरी होने के बाद दीपेश ने भी कैट परीक्षा पास की और उन्हें इस साल आईआईएम शिलॉन्ग में प्रवेश मिला है।

फंडा यह है कि सफलता तभी बेहतर चमकती है जब किसी का त्याग खुद को अंधेरे में रखकर उसे आलोकित करता है। और उस तरह के त्याग हमसे यह भी आग्रह नहीं करते कि हम उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद रखें, लेकिन उन्हें याद रखना हमारा कर्तव्य है।

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