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स्वतंत्रता सेनानी के दत्तक पौत्र से अन्याय: HC ने पंजाब सरकार पर 50 हजार और कॉलेज पर लगाया एक लाख का जुर्माना Chandigarh News Updates

स्वतंत्रता सेनानी के दत्तक पौत्र से अन्याय: HC ने पंजाब सरकार पर 50 हजार और कॉलेज पर लगाया एक लाख का जुर्माना Chandigarh News Updates

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पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट
– फोटो : अमर उजाला

विस्तार


स्वतंत्रता सेनानी के दत्तक पौत्र का एमबीबीएस में दाखिला रद्द कर अन्याय करना पंजाब सरकार और मेडिकल कॉलेज को भारी पड़ गया है। हाईकोर्ट ने याची को दाखिला देने का आदेश देते हुए पंजाब सरकार पर 50 हजार तो वहीं मेडिकल कॉलेज पर 1 लाख रुपये जुर्माना लगाया है।

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याचिका दाखिल करते हुए फरीदकोट निवासी समरवीर सिंह ने हाईकोर्ट को बताया कि उसके पिता को 1991 में बूर सिंह ने गोद ले लिया था, जो स्वतंत्रता सेनानी थे। इसके लिए आवश्यक अडॉप्शन डीड भी मौजूद है। ऐसे में याची स्वतंत्रता सेनानी का आश्रित है और उसने इसी कोटा में एमबीबीएस के लिए आवेदन किया था। उसका आवेदन स्वीकार कर उसे बाबा फरीद यूनिवर्सिटी ने अमृतसर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में एडमिशन दे दिया। 

इसके बाद एक शिकायत दी गई कि याची स्वतंत्रता सेनानी के आश्रितों की श्रेणी में नहीं आता है। सरकार के 1995 के आदेश का हवाला देते हुए बताया गया कि इसके अनुसार केवल वही स्वतंत्रता सेनानी किसी को गोद ले सकता है, जिसकी अपनी संतान न हो। बूरा सिंह की पांच बेटियां थीं, ऐसे में याची के पिता को स्वतंत्रता सेनानी का बेटा नहीं माना जा सकता।

कॉलेज ने इस बारे में यूनिवर्सिटी से सलाह मांगी, यूनिवर्सिटी ने याची के पक्ष में सलाह दी। इसके बावजूद दाखिला खारिज कर दिया गया। हाईकोर्ट ने सभी पक्षों को सुनने के बाद कहा कि 1995 के आदेश को 1991 में हुई अडॉप्शन डीड पर कैसे लागू किया जा सकता है। सांविधानिक ढांचा राज्य को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में देखता है, जो स्वाभाविक रूप से अपने नागरिकों के सर्वोत्तम हित में कार्य करने के लिए बाध्य है। 

हाईकोर्ट ने कहा कि अदालतें मुकदमेबाजी से भरी पड़ी हैं। तुच्छ और निराधार विवाद न्यायालय का समय बर्बाद करते हैं और बोझ से दबे बुनियादी ढांचे को अवरुद्ध करते हैं। देश में राज्य सरकारें आज सबसे बड़ी मुकदमाकर्ता हैं और इसमें शामिल भारी खर्च सरकारी खजाने पर भारी बोझ डालता है। वर्तमान मामला इस बात का उदाहरण है कि राज्य की ओर से मुकदमेबाजी किस तरह से पूरी तरह से यांत्रिक और उदासीन तरीके से की जाती है। इस प्रवृत्ति पर तभी लगाम लगाई जा सकती है जब न्यायालय एक संस्थागत दृष्टिकोण अपनाएं जो इस तरह के व्यवहार को दंडित करे।

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