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सेहतनामा- शुरुआती 1000 दिनों तक बच्चे को न खिलाएं चीनी: मीठा छोटे बच्चों को कर रहा बीमार, डॉक्टर के ये 7 सुझाव गांठ बांध लें Health Updates

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3 दिन पहलेलेखक: गौरव तिवारी

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विश्व प्रसिद्ध जर्नल ‘साइंस’ में पब्लिश एक स्टडी के मुताबिक, अगर शिशु को जन्म के बाद शुरुआती 1000 दिनों तक शुगर न दिया जाए तो एडल्ट लाइफ में उन्हें क्रॉनिक डिजीज होने का जोखिम कम किया जा सकता है। इन शुरुआती दिनों में बच्चे के गर्भ में पलने के दिन भी शामिल हैं। इसका मतलब है कि मां को कंसीविंग के दिन से ही अपनी डाइट में शुगर कट करना होगा।

इस स्टडी में पता चला है कि अगर बच्चों को शुरुआती जीवन में चीनी न खिलाई जाए तो टाइप–2 डायबिटीज विकसित होने का जोखिम 35% तक कम हो सकता है। मोटापे का जोखिम 30% कम हो सकता है और हाई ब्लड प्रेशर का जोखिम 20% तक कम हो सकता है। इसके अलावा उम्र के साथ होने वाली बीमारियां भी कुछ साल देर से होती हैं।

साइंस डायरेक्ट में जून, 2018 में पब्लिश एक स्टडी के मुताबिक, शुरुआती उम्र में शुगर के सेवन से बच्चों का दिमागी और शारीरिक विकास प्रभवित हो सकता है। इससे कम उम्र में प्यूबर्टी और न्यूरोलॉजिकल डिजीज का जोखिम भी हो सकता है।

इसलिए आज ‘सेहतनामा’ में जानेंगे कि बच्चों को डेवेलपमेंटल एज में शुगर कैसे प्रभावित करती है। साथ ही जानेंगे कि-

  • चीनी के बिना दिमाग और शरीर के विकास पर क्या असर होता है?
  • हम बच्चों की डाइट से शुगर कैसे कम कर सकते हैं?

दुनिया के अमीर देशों ने बेबी फूड को लेकर बनाए हैं नियम

दुनिया के सबसे अमीर और विकसित देशों ने बेबी फूड को लेकर सख्त रेगुलेशन बना रखे हैं। इनमें स्पष्ट किया गया है कि दो साल से कम उम्र के बच्चों के खाने में किसी तरह का ऐडेड शुगर इस्तेमाल नहीं करना है। इसकी वजह ऐडेड शुगर के कारण बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ने वाला असर है। किन देशों ने बेबी फूड में ऐडेड शुगर बैन किया है, ग्राफिक में देखिए:

इसका मतलब है कि अगर यहां किसी फूड कंपनी को अपना बेबी फूड बेचना है तो उस प्रोडक्ट का शुगर फ्री होना जरूरी है।

शुगर से बच्चों के विकास पर क्या असर पड़ता है

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की गाइडलाइंस के मुताबिक, 2 साल से कम उम्र के बच्चों की डाइट में चीनी की बहुत थोड़ी सी मात्रा भी नुकसानदायक है। असल में इससे बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास अवरुद्ध होता है। उन्हें बचपन में ही वेट गेन की समस्या भी हो सकती है।

चीनी खाने से बच्चों को मूड स्विंग की समस्या हो सकती है। यह उनकी स्मृति में बाधक बन सकती है और इससे इंफ्लेमेशन हो सकता है। इसके अलावा और क्या समस्याएं हो सकती हैं, ग्राफिक में देखिए:

बच्चों की डाइट में चीनी को लेकर यह फिक्र सिर्फ स्टडीज और रिसर्च तक सीमित नहीं है। इसके कारण बेहद निराशाजनक आंकड़े सामने आ रहे हैं।

छोटे बच्चों में बढ़ रही है मोटापे की समस्या

बीते कुछ सालों से बच्चों में मोटापे की समस्या आम होती जा रही है। WHO के मुताबिक, साल 2022 में पूरी दुनिया में 5 साल से कम उम्र के करीब 3.7 करोड़ बच्चे ओवरवेट थे, जबकि 5 से 19 साल के बीच करीब 39 करोड़ बच्चे ओवरवेट थे। इतनी कम उम्र में मोटापे का मतलब है कि इन बच्चों को टीनएज से पहले ही कई लाइफस्टाइल डिजीज का खतरा है। इन्हें कई क्रॉनिक बीमारियों का जोखिम भी बहुत ज्यादा है।

छोटे बच्चों में बढ़ रहे डायबिटीज के मामले

स्टेटिस्टा के आंकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में लगभग 6 लाख, 52 हजार बच्चे टाइप 1 डायबिटीज से पीड़ित हैं। फिक्र की बात ये है कि इनमें लगभग 3 लाख 56 हजार मामले सिर्फ साल 2021 में सामने आए हैं।

छोटे बच्चों को क्यों लग जाती है मीठे की लत

पूरी दुनिया की फूड कंपनियां बच्चों के ज्यादातर फूड प्रोडक्ट्स में ऐडेड शुगर इसलिए इस्तेमाल करती हैं क्योंकि मिठास से बच्चों को आनंद का एहसास होता है। यही कारण है कि इसे बार-बार खाने की इच्छा होती है और कंपनियों का प्रोडक्ट चल निकलता है। हाल ही में नेसले के बेबी फूड पर सवाल उठे थे। कंपनी बेबी फूड में ऐडेड शुगर मिलाकर बेच रही थी।

डॉ. आरडी श्रीवास्तव कहते हैं कि छोटे बच्चों का दिमाग अपना भला-बुरा नहीं सोच सकता है। उनकी रीजनिंग पावर भी नहीं विकसित हुई होती है। इसलिए वे खुद इस बात का फैसला नहीं कर सकते कि उन्हें क्या खाना है और क्या नहीं खाना है।

वे यह भी नहीं जानते कि किस चीज को खाने से उनकी सेहत पर क्या असर होने वाला है। इसलिए बतौर पेरेंट्स और गार्जियन यह जिम्मेदारी हमारी है। उन्हें ऐसी डाइट देनी होगी, जिससे उनका शरीर बुनियादी रूप से मजबूत हो और भविष्य में उन्हें लाइफस्टाइल बीमारियों का जोखिम न हो।

बच्चे के खाने की जिम्मेदारी पेरेंट्स की

अमेरिका में एक जाने–माने हेल्थ प्रैक्टिशनर हैं डॉ. मार्क हाइमन। डॉ. हाइमन 70% से ज्यादा मॉर्डर्न बीमारियों के लिए लोगों की लाइफ स्टाइल और फूड सिस्टम को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं कि अपनी सेहत का कंट्रोल मेडिकल सिस्टम के हाथों में न दें।

वे कहते हैं कि बच्चों की मेमोरी और आदतें अपने आसपास हो रही चीजों को देखकर बनती हैं। अगर वे यह देखकर बड़े होंगे कि लोग भूख लगने पर फल–सब्जी खाते हैं तो वे भूख लगने पर चॉकलेट की जगह फल-सब्जी की ही जिद करेंगे।

हमें उनके आसपास एक ऐसा माहौल तैयार करना होगा, जिसमें शुगरी फूड के लिए कोई जगह न हो। इसके अलावा बच्चों के कुछ टेस्ट बड्स गर्भ में ही डेवेलप होने लगते हैं। इसलिए मां को गर्भावस्था के समय से ही बेहद संतुलित और हेल्दी डाइट लेनी चाहिए। पेरेंट्स को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए–

  • गर्भवती मां यह सुनिश्चित करे कि वह शुगरी फूड नहीं खाएगी।
  • शिशु को सिर्फ दूध, फल और उबली सब्जियां ही दें।
  • बच्चा दूध नहीं पी रहा है तो आसानी के लिए उसमें चीनी मिलाने की गलती न करें।

सेहत वाला प्यार और दुलार

कई बार बच्चों के मामा, चाचा या मौसी उनके लिए प्यार से चॉकलेट्स लेकर आते हैं। ऐसे में पेरेंट्स की जिम्मेदारी है कि वे सभी रिश्तेदारों से इस बारे में बात करें। उन्हें समझाएं कि आप अपने बच्चे की डाइट को लेकर कितने सजग हैं और उन्हें इसमें कैसे सहयोग करना चाहिए।

इसके लिए डॉ. हाइमन कुछ सुझाव देते हैं। ग्राफिक में देखिए:

इस फूड कल्चर का नतीजा यह होगा कि बच्चे के दिमाग में यह सारी चीजें प्राइमरी मेमोरी की तरह सेव हो जाएंगी। उसे भविष्य में कुछ मीठा खाना होगा तो वह फल खरीदेगा। किसी बच्चे से मिलने जाना होगा तो फल–सब्जियां लेकर जाएगा। जो परंपरा हम आज शुरू कर रहे हैं, वह इसी तरह आगे बढ़ती चली जाएगी और खूबसूरत और हेल्दी समाज विकसित होगा।

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