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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता और विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश को एक बार फिर एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की भाजपा की अनिच्छा के बावजूद इस समय एनडीए बिहार में बढ़त बनाए हुए है।
इसके तीन कारण हैं- पहला, हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में भाजपा की शानदार जीत के बाद उसके प्रति मतदाताओं का रुझान, दूसरा, इंडिया गठबंधन सहयोगियों की तुलना में एनडीए में अधिक सामंजस्य, और तीसरा, एनडीए के दो मुख्य गठबंधन सहयोगियों भाजपा और जदयू के बीच किसी तरह की कोई उलझन का नहीं होना।
लोकसभा चुनाव में बहुमत न मिलने से भाजपा का उत्साह कुछ हद तक कम हुआ था, लेकिन हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में जीत ने पार्टी को फिर से आत्मविश्वास से भर दिया है। पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश है। यूपी में 10 से अधिक विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों में भाजपा के शानदार प्रदर्शन से भी पार्टी में उत्साह है, क्योंकि यूपी ऐसा राज्य है, जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा को झटका लगा था।
हाल ही में हुए उपचुनाव में मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर जीत को भाजपा ने प्रतिष्ठित फैजाबाद लोकसभा सीट पर मिली हार का बदला माना है, क्योंकि मिल्कीपुर अयोध्या जिले में ही है। इन सब बातों ने न केवल पार्टी नेताओं को आश्वस्त किया है, बल्कि ये जीतें खासकर उत्तर भारत के राज्यों में भाजपा के निरंतर चुनावी समर्थन का भी संकेत हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव में भले ही भाजपा का प्रदर्शन यूपी, राजस्थान और हरियाणा जैसे कुछ हिंदीभाषी राज्यों में अपेक्षानुरूप न रहा हो, लेकिन वह बिहार में अपना दबदबा बनाए रखने में सफल रही थी। यह बताता है कि एनडीए को बिहार के मतदाताओं के बीच पर्याप्त समर्थन प्राप्त है और भाजपा, जदयू या उसके सहयोगियों के जनाधार में कोई कमी नहीं दिख रही है।
बिहार में वैसे तो कई राजनीतिक दल हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच ही होगा। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ अन्य दल अकेले चुनाव लड़ेंगे और दोनों प्रमुख गठबंधनों में से किसी का भी हिस्सा बनने से इनकार करेंगे।
लोकसभा चुनाव के दौरान एनडीए में शामिल दलों के गठबंधन का हिस्सा बने रहने के स्पष्ट संकेत हैं, लेकिन इस बात पर अभी भी संदेह है कि कौन-सी पार्टियां इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनेंगी। यह सच है कि बिहार में कांग्रेस और राजद दशकों से गठबंधन में हैं, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन और हाल ही में हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र, जम्मू और कश्मीर, झारखंड जैसे कई राज्यों के चुनावों में भी निराशाजनक प्रदर्शन को देखते हुए राजद के वरिष्ठ नेता कांग्रेस के साथ गठबंधन करने को लेकर दुविधा में हैं। सीटों के बंटवारे को लेकर भी संदेह है।

2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस 9.5% वोट शेयर के साथ 70 में से केवल 19 सीटें जीत पाई थी। कई लोगों ने वहां यूपीए गठबंधन की हार के लिए कांग्रेस के खराब प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराया था। हालांकि हाल ही में इंडिया गठबंधन जम्मू और कश्मीर में सरकार बनाने में कामयाब रहा है, लेकिन उमर अब्दुल्ला ने भी चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर नाखुशी जताई।
कुछ समय पूर्व राजद सुप्रीमो लालू यादव ने कहा था कि ममता बनर्जी कांग्रेस की तुलना में इंडिया गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए बेहतर हैं। कांग्रेस ने हरियाणा में अपनी हार के लिए आप को जिम्मेदार ठहराया था और आप ने दिल्ली चुनाव में हार के बाद कांग्रेस के बारे में भी यही कहा।
यह बताता है कि इंडिया गठबंधन सहयोगियों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। गठबंधन बनाने और सीटों के बंटवारे में देरी और असमंजस की स्थिति बिहार में इंडिया गठबंधन के लिए परेशानी को बढ़ाएगी ही और इसका मतलब एनडीए को आसानी से जीतने देना होगा।
भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा बने ना बने, लेकिन यह एनडीए को राजद और उसके सहयोगियों के खिलाफ एक नैरेटिव बनाने में मदद जरूर करता है। चारा घोटाला भले ही कई साल पहले हुआ हो, लेकिन यह अभी भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राजद को पीछे धकेलता है।
राजद के नेता भी एनडीए राज में हुए अपराध के आंकड़ों का हवाला देते रहें, लेकिन राजद के ‘जंगल राज’ की तुलना में आम बिहारियों को कानून-व्यवस्था की स्थिति आज बेहतर लगती है। चुनावों में जो चीज काम करती है, वह है नैरेटिव। और एनडीए को कम से कम नैरेटिव के मामले में तो अभी बढ़त मिलती दिख रही है।
भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दा बने ना बने, लेकिन यह एनडीए को राजद और उसके सहयोगियों के खिलाफ एक नैरेटिव बनाने में मदद जरूर करता है। अभी भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राजद भाजपा-जदयू गठबंधन की तुलना में पीछे रहता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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संजय कुमार का कॉलम: भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनाव में नैरेटिव बना सकता है एनडीए