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शेखर गुप्ता का कॉलम: हमें अगले युद्ध के लिए तैयार रहना होगा Politics & News

शेखर गुप्ता का कॉलम:  हमें अगले युद्ध के लिए तैयार रहना होगा Politics & News

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1 घंटे पहले

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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

भारत औपचारिक रूप से कहता रहा है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अभी पूरा नहीं हुआ है। दोनों देश इसे एक तरह के ट्रेलर के रूप में ही देख रहे हैं या इसे अगली लड़ाई की पूर्व तैयारी मानते हैं। इस उपमहादेश का रिकॉर्ड तो यही कहता है कि यह सबसे अच्छी स्थिति नहीं है। 9 अप्रैल 1965 को कच्छ में हुई लड़ाई इसके एक उदाहरण के रूप में पहले से मौजूद है।

उसमें दोनों पक्षों ने युद्धविराम कर दिया था, लेकिन पांच महीने बाद ही पूर्ण युद्ध छिड़ गया था। उस समय पाकिस्तान ने कच्छ से गलत सबक लेते हुए युद्ध शुरू किया था। उम्मीद करें कि इसके बाद बीते छह दशकों में उसे सद्बुद्धि आ गई होगी।

यह बड़ी मुश्किल से होता है कि पाकिस्तान अपनी हार कबूल कर ले। 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति या कारगिल में आत्मसमर्पण इसके उदाहरण हैं। निर्विवाद रूप से निर्णायक पराजय से कम जैसी कोई स्थिति बनी तो आप शर्त लगा लीजिए कि वो इसे अपनी जीत ही घोषित कर देंगे। और एक बार जब वो इस मूड में आ जाते हैं कि ‘देखो, हमने जंग जीत ली’, तब आप उम्मीद कर सकते हैं कि वो जल्दी ही फिर वापस आएंगे।

हाल ही में भारतीय सेना के तीन में से एक डिप्टी चीफ ले. जनरल राहुल सिंह ने इस संघर्ष से मिले सबक और भविष्य के संकेतों के बारे में चर्चा की थी। यह अच्छी बात है कि कम-से-कम एक पक्ष तो जीत का नासमझी भरा जश्न नहीं मना रहा, बल्कि आगे के बारे में सोच रहा है।

कच्छ वाली जंग के बाद भी यही हुआ था। कच्छ से मिले सबक पर भारत ने काफी समझदारी और यथार्थपरक नजरिए से गौर किया था और इसका नतीजा यह निकला कि उस लड़ाई के बाद हुए युद्ध में रणनीतिक जीत हासिल हुई।

भारत के लिए वह रणनीतिक जीत इसलिए थी कि पाकिस्तान ने ही एक लक्ष्य (कश्मीर पर कब्जे) के लिए युद्ध शुरू किया था। वह लक्ष्य उसे नहीं हासिल करने दिया गया और उसे पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया था। युद्ध की पहल करने वाले पाकिस्तान के लिए गतिरोध भारत की जीत थी।

भारत तब यह तैयारी कर रहा था कि पाकिस्तान ने अगर कश्मीर पर दबाव बढ़ाया तो लाहौर और सियालकोट पर जवाबी कार्रवाई कैसे की जाएगी। यह रिकॉर्ड में दर्ज है कि कच्छ में युद्धविराम के बाद गर्मियों के आखिरी दिनों में तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई.बी. चह्वाण, गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने जालंधर में XI कोर के मुख्यालय में सेना के वरिष्ठ कमांडरों के साथ बैठक की थी और जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान के पंजाब में नए मोर्चे खोलने की योजना पर विचार किया था।

‘ऑपरेशन रिडल’ नामक इस योजना पर महीनों से विचार चल रहा था। कच्छ से मिले सबक के बाद भारत ने यह तैयारी की थी। इस प्रकरण के बारे में सटीक जानकारी हासिल करने के लिए मैं उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांडर रहे ले. जनरल हरबख्श सिंह की किताब ‘वार डिस्पैचेज़’ पढ़ने की सलाह दूंगा। उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांड में जम्मू-कश्मीर भी शामिल था। कच्छ की लड़ाई को हम प्रायः भूल जाते हैं। हालांकि, यह 87 घंटे के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से ज्यादा लंबी (9 अप्रैल से 1 जुलाई तक) थी।

पाकिस्तान ने जो ‘सबक’ सीखा, वह उसके सत्ता-तंत्र की सबसे बड़ी गलतफहमी साबित हुई। उसने नतीजा निकाला कि लाल बहादुर शास्त्री ने युद्धविराम और अंतररराष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए सहमति देकर अपनी हार कबूल कर ली है और इसी सोच ने उसे पहले ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ (कश्मीर में हथियारबंद गिरोहों की घुसपैठ) और इसके बाद ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ (अखनूर पर कब्जा करके कश्मीर को बाकी हिस्सों से काट देने के लिए भारी दबाव) शुरू करने को उकसाया।

आसिम मुनीर के पास वक्त कम है। उनके मुल्क पर पाकिस्तानी फौज का शिकंजा तो कसा रहेगा मगर अपनी फौज पर मुनीर की पकड़ हमेशा कायम नहीं रहने वाली है। कुछ समय बाद ही, शायद चंद महीनों के अंदर ही उनके वर्दीधारी साथियों और सियासी नेताओं की ओर से उनकी असंवैधानिक सत्ता को चुनौती मिलने लगेगी।

अतीत में, पाकिस्तान के फौजी तानाशाह एक संस्था के तौर पर फौज के औपचारिक कुर्सी-हड़प के साथ सत्ता हथियाते रहे, लेकिन मुनीर ने पिछले दरवाजे से सत्ता हथिया करके न केवल अपनी वर्दी पर एक अतिरिक्त ‘स्टार’ धारण कर लिया बल्कि एक व्यक्ति के तौर पर राजनीतिक सत्ता पर भी कब्जा कर लिया है।

यह बहुत टिकाऊ नहीं साबित हो सकता। इसलिए आप निश्चित मानिए कि अपनी बेसब्री में वे कोई नया दुस्साहस कर सकते हैं। वे ‘सिंदूर’ के मामले से उसी तरह गलत सबक ले सकते हैं, जिस तरह उनके फौजी पूर्ववर्तियों ने कच्छ से गलत सबक लिया था।

भारत स्थिरता पर दांव लगाता है, उसकी आर्थिक वृद्धि इतनी ऊंची है कि वह किसी लंबी जंग का जोखिम नहीं उठा सकता। मुनीर सोच सकते हैं कि छोटी-छोटी लड़ाइयां भारत का संतुलन बिगाड़ देंगी, कश्मीर घाटी में अस्थिरता पैदा करेंगी।

मुनीर सोच सकते हैं कि उन्होंने भारत को इसमें उलझा दिया है। कश्मीर में आतंकी हमला, भारत की ओर से जवाबी फौजी कार्रवाई और इसके बाद इस सबको लेकर कुछ दिनों तक कोलाहल! यह सब इस क्षेत्र का ‘अंतरराष्ट्रीयकरण’ भी कर देगा।

वे यह भी सोच सकते हैं कि पहलगाम में उन्होंने जो पहल की, वह इस उपमहादेश के मसले के बारे में दुनिया की समझ को इस दिशा में मोड़ने में सफल रही है कि यहां मसला आतंकवाद नहीं परमाणु युद्ध का है। इसलिए उन्हें कुछ करने का बहाना मिल जाता है।

हम यह नहीं बता सकते कि अपनी गलतफहमी में वे कार्रवाई कब करेंगे, लेकिन यह लगभग निश्चित है। और यही कारण है कि भारत को समयबद्ध योजना बनाने की जरूरत है। हमें पांच साल की समय सीमा तय करके चलना चाहिए, जब हम अपना इतना खौफ पैदा करने की ताकत हासिल कर लें कि ये मुनीर या अगला कोई मुनीर इस तरह की गलती करने के बारे में सोच भी न सके।

हम रणनीतिक मोर्चे पर अभी सुस्ता नहीं सकते हैं… यह मान लेना एक अक्षम्य ऐतिहासिक भूल होगी कि यह रणनीतिक मोर्चे पर सुस्ताने का वक्त है। दरअसल, यह दौड़ पड़ने का वक्त है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का मजा तो लीजिए मगर इससे भी अहम यह है कि इससे भविष्य के लिए प्रोत्साहन हासिल कीजिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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