[ad_1]
- Hindi News
- Opinion
- Shekhar Gupta’s Column Why Have We Turned Our Eyes Away From The “red Ball”?
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
हमारे टीवी समाचार चैनल जिस तरह के कल्पनाशील और रंग-बिरंगे हेडलाइन बनाया करते हैं, उन्हें देखते हुए मुझे हैरानी हो रही है कि दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम ने भारतीय टीम को जिस तरह से हराया, उस पर अब तक किसी चैनल ने ‘बौने का बदला’ हेडलाइन क्यों नहीं लगाया?
मनुष्य आज विकास के जिस स्तर पर पहुंच गया है, उसमें शालीन ढंग से भी किसी को बौना कहना गलत है। लेकिन जसप्रीत बुमराह ने दक्षिण अफ्रीकी टीम के कप्तान तेम्बा बवुमा के लिए इसी शब्द का प्रयोग किया था। यह बात तब कही गई, जब एक एलबीडब्लू अपील को डीआरएस के हवाले किए जाने की मांग पर सलाह-मशविरा किया जा रहा था।
आजकल क्रिकेट के मैदान पर अपशब्दों का इस्तेमाल खूब होने लगा है और इसकी कोई परवाह भी नहीं करता। महिला खिलाड़ी भी इस मामले में पुरुषों की बराबरी करने लगी हैं। लेकिन यह जानने के बावजूद कि अभद्र शब्दों का उपयोग करने पर स्टम्प में लगे माइक्रोफोन और सोशल मीडिया आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे, आप ऐसा करते हैं तो इसे मूर्खता ही कहा जाएगा। बवुमा इस खेल के दिग्गज खिलाड़ी हैं।
उनका 5’4’ का शरीर क्रिकेट में उनके कद को परिभाषित नहीं करता, जैसे सुनील गावसकर या एक इंच उधर-इधर के सचिन तेंदुलकर या गुंडप्पा विश्वनाथ के कद को नहीं करता। दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में बवुमा भी इन दिग्गजों की तरह ‘लिटिल मास्टर’ हैं।
वे उस देश के पहले अश्वेत क्रिकेट कप्तान हैं, जहां रग्बी से लेकर क्रिकेट तक उसके सभी प्रिय खेलों में नस्लीय भेदभाव के पतन को धीरे-धीरे कबूल किया जा रहा है। पहले टेस्ट मैच में दक्षिण अफ्रीका की बिखरती दूसरी पारी में बावुमा ने डटे रहकर 55 रन बनाए, जो उस टेस्ट में किसी भी खिलाड़ी का सबसे बड़ा स्कोर था। उसने उनकी टीम की जीत पक्की कर दी थी। इसके बाद भारतीय टीम को अपने ही घर में सबसे बड़े अंतर (408 रन) से हारने और 2-0 से सीरीज हार की दुर्गति का सामना करना पड़ा।
1976 में जब वेस्ट इंडीज की टीम इंग्लैंड पहुंची थी और मेजबान कप्तान टोनी ग्रेग ने सीरीज शुरू होने से पहले ही दावा किया था कि वे उनसे मशक्कत करवाने का इरादा रखते हैं तो इसमें नस्लवाद की बू सूंघने में किसी ने गलती नहीं की।
आखिर ग्रेग का जन्म भी दक्षिण अफ्रीका में हुआ था, और वह दौर ऐसा था जब रंगभेद अपने चरम पर था। ग्रेग की बातों ने वेस्ट इंडीज टीम को नाराज और एकजुट कर दिया और उसने इंग्लैंड को उसके ही घर में 3-0 से धो दिया। गुवाहाटी में मैच से पहले प्रेस वार्ता में बवुमा ने भी माना कि इस सीरीज में कुछ भारतीय खिलाड़ियों ने भी सीमा तोड़ी है।
बवुमा को खिल्ली उड़ाए जाने का अनुभव तो है ही। इंटरनेट ने 2023 में दिए उनके इस बयान को ढूंढ निकाला कि मुझे कई गालियां दी जा चुकी हैं। कुछ गालियां दु:खी करती हैं… लेकिन मुझे अपने जीवन में सबसे ज्यादा तेम्बा नाम से ही पुकारा गया है। मेरी दादी ने मेरा यह नाम रखा था, क्योंकि इसका अर्थ है- उम्मीद। हमारे समुदाय के लिए उम्मीद, अपने देश के लिए उम्मीद।
बहरहाल, क्रिकेट खेलने वाले इन दोनों देशों के आपसी संबंध बेहद अच्छे रहे हैं और जल्द ही आप कई दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ियों को आईपीएल के आगामी सीजन में फलते-फूलते देखेंगे। एबी डीविलियर्स वर्षों से भारतीय खेलप्रेमियों के चहेते रहे हैं।
2015 की सीरीज में चौथे टेस्ट में दक्षिण अफ्रीका ने जब दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान पर भारत को हराया था, तब मैं भी वहां था। तब सबसे ज्यादा तालियां किसी भारतीय खिलाड़ी के लिए नहीं बल्कि ‘एबीडी’ के लिए बजी थीं। उम्मीद है दोनों टीमें और क्रिकेट बोर्ड सीरीज में अमन बनाए रखेंगे और यह दोनों के लिए फायदेमंद रहेगी।
लेकिन इस सीरीज को परिभाषित करने वाला तथ्य यह है कि भारत में लाल गेंद से खेले जाने वाले क्रिकेट का भारी पतन हो चुका है और मेहमान टीमें अब सीरीज के सारे मैच जीत लेती हैं। भारत की ‘जेन-जी’ और यहां तक कि उससे पहले की पीढ़ी को भी याद नहीं होगा कि उन्होंने कभी भारतीय टेस्ट टीम को गर्त में पड़कर इस तरह से संघर्ष करते देखा हो।
2008 से 2025 के बीच घरेलू मैदानों पर 88 टेस्ट मैच खेले गए और भारत ने इनमें से 59 मैच जीते। विश्व टेस्ट चैंपियनशिप में भारत दो बार फाइनल तक पहुंचा और शास्त्री-द्रविड़ युग में टेस्ट रैंकिंग में लंबे समय तक टॉप पर रहा।
इन 17 वर्षों में भारत अपने घर में केवल 10 टेस्ट हारा। इनमें से आधे तो न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेली गई पिछली दो होम सीरीज थीं। स्पिन वाली घरेलू पिचों के कारण भारत को जो अजेयता हासिल थी, वह अचानक गंभीर बोझ बन गई है।
इंग्लैंड में उसके साथ सीरीज को हमने शानदार तरीके से ड्रॉ किया था और ऑस्ट्रेलिया के साथ सीरीज में हम जोरदार टक्कर देकर हारे थे। यह इस विरोधाभास को उजागर करता है कि आज की भारतीय टीम अपने देश के मुकाबले विदेश में ज्यादा अच्छा खेलती है। जबकि घर में भारतीय टीम न तो बहुत अच्छी स्पिन गेंदबाजी कर पा रही है और न ही स्पिन गेंदों पर बैटिंग करने में सक्षम लग रही है।
लेकिन बड़ी समस्या यह है कि बीसीसीआई ने लाल गेंद से नजर फेर ली है। क्रिकेट के फैन उसके ‘कस्टमर’ बन गए हैं। जबकि टेस्ट क्रिकेट इस खेल का सबसे शुद्ध रूप है। एशेज सीरीज के दर्शकों के आंकड़े देख लीजिए। ऐसे में हमारे क्रिकेट बोर्ड को दौड़ के काबिल घोड़ों पर फिर से ध्यान देना चाहिए। और हां, अगर आप खेल के हर फॉर्म के हिसाब से कप्तान चुनते हैं, तो उसी तरह अलग-अलग कोच भी चुन सकते हैं।
हम भारतीय पिचों पर टेस्ट मैचों में निरंतर हार रहे हैं… भारत में लाल गेंद से खेले जाने वाले क्रिकेट का भारी पतन हो चुका है और मेहमान टीमें अब सीरीज के सारे मैच जीत लेती हैं। ‘जेन-जी’ और उससे पहले की पीढ़ी को भी याद नहीं होगा कि उन्होंने कभी भारतीय टेस्ट टीम को गर्त में पड़कर ऐसे संघर्ष करते देखा हो।
हम भारतीय पिचों पर टेस्ट मैचों में निरंतर हार रहे हैं… भारत में लाल गेंद से खेले जाने वाले क्रिकेट का भारी पतन हो चुका है और मेहमान टीमें अब सीरीज के सारे मैच जीत लेती हैं। ‘जेन-जी’ और उससे पहले की पीढ़ी को भी याद नहीं होगा कि उन्होंने कभी भारतीय टेस्ट टीम को गर्त में पड़कर ऐसे संघर्ष करते देखा हो। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
[ad_2]
शेखर गुप्ता का कॉलम: हमने ‘लाल गेंद’ से नजरें क्यों फेर ली हैं?

