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- Shekhar Gupta’s Column: Opposition Parties Today Do Not Have Any Big ‘idea’
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
अपने तीसरे कार्यकाल की पहली वर्षगांठ की ओर बढ़ रहे नरेंद्र मोदी आत्मविश्वास से लबालब और बेहद आश्वस्त दिख रहे हैं। पिछले चुनाव में 240 सीटें पाने के बाद उनमें जो संशय और तनाव आपको दिख रहा होगा, वह दूर हो चुका है। हरियाणा और महाराष्ट्र में विजय के अलावा ‘इंडिया’ गठबंधन में बिखराव ने बेशक इस आत्मविश्वास में इजाफा किया है। लेकिन उनके इस आत्मविश्वास के पीछे और भी अधिक ठोस कारण यह है कि उन्हें चुनौती देने वालों में नए विचारों का अभाव है।
आज कहीं पर कोई भी नहीं है- न कोई नेता, न कोई पार्टी और न कोई विचार- जो राष्ट्रीय राजनीति में खलबली पैदा कर पा रहा हो। मोदी के प्रतिद्वंद्वी पुराने विचारों से चिपके हैं। या तो वे मोदी से मात खा चुके हैं या मोदी ने उन्हें बेअसर कर दिया है या बदल दिया है। खुद को धोखे में न रखिए। मोदी 2029 में भी भाजपा का नेतृत्व करेंगे। तब उनकी उम्र उतनी ही होगी, जितनी आज ट्रम्प की है। अगर उनके प्रतिद्वंद्वी इस मुगालते में रहना चाहते हैं कि उनका समय खत्म होने वाला है और राहुल की उम्र उनकी मदद करेगी, तो वे मोदी-युग को नहीं समझ पाए हैं।
ऐसा लगता है कि उनके विरोधियों के पास मतदाताओं के लिए कोई बेहतर पेशकश नहीं है, कम-से-कम एक दिलचस्प और उत्साहित करने वाली पेशकश। अपनी शैली, विचारधारा या राजनीतिक सोच के बूते कोई भी बड़ी खलबली नहीं पैदा कर पा रहा है। वह बड़ी खलबली पैदा करने वाला ‘आइडिया’ क्या हो सकता है? यह वह सब तो हरगिज नहीं हो सकता, जो विपक्ष आज पेश कर रहा है। साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा अब पुराना पड़ चुका है।
अमीर बनाम गरीब की बहस में भी विपक्षी दल जीत नहीं सकते। क्योंकि मोदी की राजनीति उनकी राजनीति के मुकाबले ज्यादा ‘गरीबोन्मुख’ दिखेगी। अदाणी-अम्बानी का ठप्पा उन पर चस्पा नहीं हो पाता, क्योंकि इसे सामने रखने वालों में आत्मविश्वास की कमी है। मोदी ने उनसे ‘मनरेगा’ की जो गरीबवादी सीढ़ी उत्तराधिकार में हासिल की थी, उसके कई पायदान वे ऊपर चढ़ चुके हैं। आज 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है, उनके लिए आवास बनाए जा रहे हैं, शौचालय के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं, किसानों को ‘मुद्रा लोन’ के जरिए मदद दी जा रही है।
गरीबों को आज जितना मिल रहा है, उतना पिछली किसी सरकार ने नहीं दिया था। क्या मुफ्त रेवड़ियां विपक्ष को आगे बढ़ने में मदद कर सकती हैं? वे ऐसा जो भी वादा करेंगे, मोदी उससे बेहतर पेशकश करेंगे। मोदी को चुनौती देने वालों को समझ जाना चाहिए था कि राजनीति को ‘लेन-देनवाद’ में बदलने के क्या नतीजे हो सकते हैं। लेन-देन पर भरोसा करने वाला मतदाता वफादार नहीं होता। वह हमेशा उसका पक्ष लेगा, जो बड़ी बोली लगाएगा।
विपक्ष मोदी से धर्म के मुद्दे पर नहीं लड़ सकता, चाहे वे कितने भी मंदिरों में मत्था टेकें या कलाई पर कितने भी धागे बांधें या कितने भी रंग की चादर ओढ़ें। और, राष्ट्रवाद? इसका तो भूलकर भी नाम न लें। मोदी के प्रतिद्वंद्वियों के लिए फिलहाल जाति एक पसंदीदा मुद्दा बना हुआ है। लेकिन जातीय जनगणना का पत्ता खेलकर कांग्रेस कुछ भी हासिल नहीं कर सकती। कांग्रेस जाति-जनगणना वाली पार्टी का चोला धारण करती हुई, और इसके जरिए सामाजिक न्याय दिलाने का वादा करती हुई ऐसी लगती है मानो झूठ बोल रही है।
अगर किसी ने राहुल गांधी को समझा दिया है कि जाति-जनगणना ही वह रामबाण है, जो मोदी की गद्दी हिला सकता है, तो हम कहेंगे कि उन्हें बेहतर सलाहकारों की जरूरत है। 1969 के बाद से, भारतीय राजनीति में केवल तीन बड़े आइडिया उभरे : ‘गरीबी हटाओ’ (इंदिरा गांधी का ठोस समाजवादी नारा); मंडल (सामाजिक न्याय का नारा); और मंदिर (हिंदुत्ववादी नारा)। अलग-अलग समय पर ये तीनों सफल रहे।
अब चुनौती यह है कि इनमें से दो में सभी बड़ी पार्टियों की हिस्सेदारी है। हिंदुत्व पर भाजपा का एकाधिकार है। दूसरे दल (कांग्रेस के नेतृत्व में) जब समाजवाद और सामाजिक न्याय की बात करते हैं तब कोई उत्साहित नहीं होता। वे करीब 15 फीसदी मतदाता तो नहीं ही होते, जो पाला बदल सकते हैं। आंकड़ों से हमें पता है कि 20 फीसदी मतदाता कांग्रेस के साथ हैं और करीब 25 फीसदी भाजपा के साथ हैं। बाकी 10-12 फीसदी मोदी के लिए बोनस जैसे हैं। ये मतदाता कांग्रेस से थककर दूसरे पाले में गए हैं। आप वही पुराने मंत्र जपते रहे तो वे आपकी ओर नहीं लौटेंगे।
- प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने ‘मनरेगा’ की जो गरीबवादी सीढ़ी उत्तराधिकार में हासिल की थी, उसके कई पायदान वे ऊपर चढ़ चुके हैं। मुफ्त राशन, आवास, शौचालय, ‘मुद्रा लोन’- गरीबों को आज जितना मिल रहा है, उतना किसी सरकार ने नहीं दिया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता का कॉलम: विपक्षी दलों के पास आज कोई बड़ा ‘आइडिया’ नहीं है