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2 घंटे पहले
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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
इस बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है कि अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को दिल्ली में हार क्यों झेलनी पड़ी। इसलिए हम इससे आगे बढ़ रहे हैं और पिछले दशक में राष्ट्रीय राजनीति में आए इस सबसे महत्वपूर्ण मोड़ में से एक के व्यापक परिणामों का आंकलन कर रहे हैं।
ये केवल दिल्ली तक सीमित नहीं हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विचारधारा-मुक्त राजनीति का युग समाप्त हो गया है। लगभग 15 वर्षों तक केजरीवाल ने बिना किसी वैचारिक स्तम्भ या आधार के अपनी राजनीति चलाई। और यह जानबूझकर किया गया था।
आम आदमी पार्टी एक विद्रोही पार्टी थी, जो सड़कों पर विरोध-प्रदर्शनों और शहरी मध्यम वर्ग के गुस्से से विकसित हुई थी। जब रामलीला मैदान पर अण्णा हजारे का आंदोलन चरम पर था, तो अकसर इसकी तुलना तहरीर चौक से की जाती थी।
अखबारों के सम्पादकीय और टीवी चैनलों की बहस के अभिलेखागार खंगालें। अण्णा आंदोलन के दौरान केजरीवाल, उनके सहयोगी, मैग्सेसे पुरस्कार विजेताओं के हाथों में इंडिया अगेंस्ट करप्शन का नेतृत्व, दो भगवाधारी व्यक्ति (स्वामी अग्निवेश और बाबा रामदेव), एक न्यायाधीश और दो शीर्ष वकील उस समय संघ के अग्रिम संगठनों और अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ मिलकर काम करते थे।
टीवी चर्चाओं में सुनी गई कुछ सबसे प्रमुख आवाजें बार-बार यह कहती थीं कि यूपीए की सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट है, और वे आवाजें भाजपा से जुड़ी थीं। नई दिल्ली के विवेकानंद फाउंडेशन से उस आंदोलन को बहुत सारी बौद्धिक ऊर्जा मिली, जो व्यावहारिक रूप से भाजपा-संघ का थिंक टैंक है। देखें कि वहां सक्रिय कितने लोग पहली मोदी सरकार में तुरंत शामिल हो गए थे। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव रहे नृपेंद्र मिश्र भी शामिल थे।
गैर-राजनीतिक होने और सत्ता की चाह न रखने का दिखावा करने के बावजूद केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं राजनीतिक थीं। पर उनके पास वैचारिक विकल्प सीमित थे। या तो वे भाजपा के साथ जा सकते थे या अकेले ही आगे बढ़ सकते थे।
हम निश्चित नहीं हैं कि भाजपा को उनकी जरूरत होती या खुद केजरीवाल वहां औसत दर्जे के नेता बनकर संतुष्ट होते। उनकी लोकप्रियता बहुत जल्दी अपने चरम पर पहुंच गई थी और वे बड़े सपने देख रहे थे। उनके करीबियों का कहना है कि केजरीवाल को लगता था वे प्रधानमंत्री बन सकते थे।
केजरीवाल के लिए अण्णा हजारे से खुद को दूर कर लेना आसान था। आप के गठन के साथ ही राजनीतिक छलांग लगाई गई, जिसमें शुरू में वैचारिक-वामपंथी कहे जाने वाले प्रमुख चेहरे शामिल थे- जैसे कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण।
ऐसे में केजरीवाल भाजपा के साथ जाने वाले नहीं थे। उनकी महत्वाकांक्षा और दुस्साहस ने उन्हें 2014 में वाराणसी में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। हम उनसे वाराणसी में उनके चुनाव-प्रचार के दौरान मिले थे और तब भी मैंने पाया कि उनका संदेश गड़बड़ था।
केजरीवाल कहते थे कि मैं वाराणसी में क्यों हूं, जबकि मैं आसानी से दिल्ली से सांसद बन सकता हूं? मैं मोदी को हराने आया हूं। मैंने तब उनसे पूछा था कि क्या इसलिए क्योंकि मोदी धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा हैं? उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही। इसके बजाय उन्होंने कहा, क्योंकि वे अम्बानी और अदाणी की जेब में हैं और मेरे पास इसे साबित करने के लिए दस्तावेज हैं। फिर उन्होंने एक के बाद एक कागजों के कई पुलिंदे बाहर निकाल लिए।
अर्जेंटीना में हावियर माइली ने आरा-मशीन लेकर प्रचार किया था और अर्जेंटीना की सरकार को आधे में काटने का वादा किया था, जो कि उन्होंने किया भी। डोनाल्ड ट्रम्प ने इलोन मस्क को अपना ड्राइवर बनाकर ‘डीप स्टेट’ पर बुलडोजर चलाया। केजरीवाल के पास ऐसा कोई मौलिक विचार नहीं था।
वे भाजपा के हिंदुत्व से ज्यादा हिंदू नहीं हो सकते थे और लेफ्ट-टु-सेंटर की राजनीति उन्हें कांग्रेस के बराबर ला खड़ा करती। तब वे किसके लिए खड़े थे? यही वह सवाल है, जिसका जवाब देने से वे चतुराई से बचते रहे। अपनी पार्टी और सरकारी कार्यालयों में आम्बेडकर और भगत सिंह के चित्रों का इस्तेमाल करते रहे।
केजरीवाल विचारधारा के दोनों तरफ खेलते रहे। उनकी अभिजात्य-विरोधी सोच उन्हें वामपंथ के करीब ले गई, लेकिन उन्होंने उसी विचारधारा के अपने साथियों को बाहर भी कर दिया। फिर एक टीवी इंटरव्यू में हनुमान चालीसा का पाठ करना, दिल्ली में अस्थायी राम मंदिर का निर्माण करना, आतिशी द्वारा उनके जेल जाने की तुलना राम के वनवास से करना आदि भी किया गया। लेकिन जैसा कि राहुल गांधी ने भी कई मंदिरों में जाने और अपने जनेऊ, उच्च ब्राह्मण गोत्र या शिव-भक्ति की बात करने के बाद महसूस किया है कि वो भाजपा और मोदी को हिंदुत्व के क्षेत्र में टक्कर नहीं दे सकते।
अनुच्छेद 370, राम मंदिर, रोहिंग्या और बांग्लादेशी अप्रवासियों जैसे मुद्दों पर केजरीवाल भाजपा के साथ थे। फिर जब उन्हें सुविधाजनक लगा, तो वे कांग्रेस के साथ चले गए। उनकी राजनीति में बुनियादी विरोधाभास यह है कि उन्हें कांग्रेस के साथ रहना है, लेकिन वे कांग्रेस की राजनीतिक जमीन में सेंध भी लगाना चाहते हैं।
दिल्ली में उन्होंने कांग्रेस के वोटों को पूरी तरह से साफ कर दिया था। वे गुजरात, गोवा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब में भी घुसे। वे चाहते थे कि आप नई कांग्रेस बने। लेकिन कांग्रेस ने दिल्ली में इसका बदला चुका दिया है।
एकसूत्रीय थी राजनीति… केजरीवाल को कांग्रेस से भी समर्थन लेने में कोई हिचक नहीं हुई थी, जिसे उन्होंने भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के बाद हराया था। उनके पास विचारधारा का कोई बोझ नहीं था। उनकी राजनीति एकसूत्रीय थी। यह कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं और बाकी सभी चोर हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता का कॉलम: विचारधारा-शून्य राजनीति का दौर खत्म हुआ