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शेखर गुप्ता का कॉलम: ये कहना गलत कि हम दुनिया में अकेले पड़े Politics & News

शेखर गुप्ता का कॉलम:  ये कहना गलत कि हम दुनिया में अकेले पड़े Politics & News

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  • Shekhar Gupta’s Column It Is Wrong To Say That We Are Alone In This World

4 घंटे पहले

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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

यहां हम जिस ‘एन’ अक्षर का प्रयोग कर रहे हैं, वह ‘न्यूक्लियर’ (परमाणु) हथियारों वाला ‘एन’ अक्षर नहीं है। यह ‘नैरेटिव’ के लिए किया गया है। यह अक्षर इतना घिस-पिट चुका है कि मैं इसे न्यूजरूम में प्रतिबंधित करता रहा हूं। लेकिन इस लेख में जिस ‘नैरेटिव’ की बात की जा रही है, उसके मामले में इसकी छूट दे रहा हूं।

पहलगाम में हमला होने के तुरंत बाद ही फुसफुसाहट शुरू हो गई थी कि पूरी दुनिया पाकिस्तान की मलामत क्यों नहीं कर रही? यह शिकायत ऑपरेशन सिंदूर के साथ ही एक शोर में बदल चुकी थी कि हमें कोई इस ऑपरेशन पर शाबाशी क्यों नहीं दे रहा है? हमेशा की तरह पश्चिमी मीडिया पर उंगली उठाई जा रही थी कि वह हमारी सेना की कामयाबी की चर्चा क्यों कर रहा है।

वे गोलमोल बातें कैसे कर सकते हैं और ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हमें नुकसान हुआ है? फिर ट्रम्प इस कोलाहल में कूद पड़े और खलबली मच गई। इसका यही निष्कर्ष निकाला जाना था कि कोई भी हमारे साथ नहीं है और भारत को अकेले ही लड़ना है। पीड़ित होने का एहसास बहुत आकर्षक होता है, और कई पीढ़ियों से हमने इसे एक पुरानी बीमारी की तरह बना लिया है। लेकिन इसके साथ कई तथ्यात्मक समस्याएं जुड़ी हैं।

पहला तथ्य यह है कि 1965 को छोड़ कभी भी हम अकेले नहीं पड़े। 1971 में सोवियत संघ हमारे साथ संधि कर चुका मित्र-देश था। करगिल युद्ध हो या ऑपरेशन पराक्रम हो या 26/11 का हमला, हर मौके पर लगभग पूरी दुनिया हमारे पक्ष में थी।

यहां तक कि चीन का रुख भी गोलमोल था। वैसे 1965 में भी सोवियत संघ भारत की तरफ आधा झुका ही हुआ था। मिग विमानों का हमारा पहला स्क्वाड्रन (युद्ध शुरू होने के समय नौ विमान तैयार थे) बन रहा था और दिल्ली के पास ही ‘सैम-2 गाइडलाइन’ मिसाइलें तैनात कर दी गई थीं। 1991 में सोवियत विघटन और हमारी अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकड़ने के बाद पश्चिम से हमारे संबंध बेहतर होते गए।

1998 में पोकरण-2 के बाद से अमेरिका ने प्रतिबंधों को हटाने में देर नहीं की और भारत को रणनीतिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मित्र-देश तथा परमाणु शक्ति संपन्न देश के रूप में स्वीकारा। तब से उसने कश्मीर को लेकर कभी हमारे प्रतिकूल कोई बात नहीं की।

2000 में, भारत से अपने देश लौटते हुए बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान के एक हवाई अड्डे पर थोड़ी देर के लिए रुकने के दौरान कैमरे के सामने अपनी उंगली हिलाते हुए पाकिस्तानियों से साफ कहा था कि इस क्षेत्र के नक्शे की रेखाओं को खून से नहीं बदला जा सकता। पाकिस्तान ने अमेरिका का सहारा खो दिया और चीन के संरक्षण में चला गया।

पुलवामा-बालाकोट के बाद से अमेरिका भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने में ऐसी रचनात्मक भूमिका निभाता रहा है, जो भारत के लिए मुफीद रही है। तब और अब में फर्क यह है कि अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रम्प और 47वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रम्प में भारी अंतर है।

नए ट्रम्प हर बात का श्रेय खुद लेना चाहते हैं। उन्हें ट्रोलिंग में खास मजा आता है। उन्होंने कनाडा के मार्क कार्नी, यूक्रेन के जेलेंस्की और अभी हाल में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति साइरिल रामाफोसा को ‘वॉट्सअप यूनिवर्सिटी’ वाली भाषा में ‘श्वेतों के जनसंहार’ के लिए अपमानित किया। ट्रम्प को बेशक इस बात से मदद ही मिलती है कि इलॉन मस्क उनके प्रशासन में सबसे शक्तिशाली पद पर होने के बावजूद अपने देश की आंतरिक राजनीति करते रहे हैं।

पूरी दुनिया अभी यही सीख रही है कि ट्रम्प और उनके प्रशासन की वास्तविकता के बीच फर्क कैसे किया जाए। ट्रम्प के बड़बोले दावों से आप जब भी उत्तेजित हो जाएं, उनके उपराष्ट्रपति जेडी वेंस या तुलसी गेबार्ड, काश पटेल आदि के ट्वीटों को पढ़िए।

यहां तक कि विदेश मंत्री मार्को रुबियो के बयान भी बारीकी भरे होते हैं। पाकिस्तान को भारत से सहयोग करने और अपने यहां मौजूद आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा जाता है। भारत को और क्या चाहिए?

आत्मदया से भरी विपत्तिग्रस्तता पराजित होने के एहसास से भी बुरी चीज है, क्योंकि यह भी आपको हताश करती है। इधर सबसे मूर्खतापूर्ण बात यह सुनी जा रही है कि पश्चिमी देशों (अमेरिका) ने भारत को फिर से पाकिस्तान के बराबर नत्थी कर दिया है। लेकिन जरा यह तो बताइए, क्या किसी ने आपसे कहा है कि कश्मीर मसले पर बातचीत शुरू कीजिए और हमें उसमें मध्यस्थ बनने की पेशकश कीजिए?

ट्रम्प भी जो बड़बोलापन कर रहे हैं, वह सिर्फ संघर्ष-विराम में अपनी भूमिका के बारे में है। भारत ने जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा छह साल पहले ही खत्म कर दिया। किसी मित्र-देश ने इस पर आपत्ति नहीं की, न इस फैसले को पलटने की मांग की।

तुर्किए हमारे लिए मामूली हैसियत रखता है, और अजरबैजान तो उतनी भी हैसियत नहीं रखता। जहां तक ‘ओआईसी’ की बात है, किस भी मुस्लिम मुल्क के पास इस लगभग निष्क्रिय संगठन के लिए समय नहीं है। इंडोनेशिया, बहरीन, मिस्र जैसे इस्लामी मुल्कों ने भारत की आलोचना करते हुए ध्यान रखा कि वह हल्की हो।

इसलिए हकीकत यह है कि दोस्ताना रिश्ते से आगे, भारत आज दुनिया में जिस बेहतर हैसियत में है, वैसी स्थिति में वह शीतयुद्ध के बाद के दौर में कभी नहीं रहा। यह इस भारी विडम्बना का आश्चर्यजनक उदाहरण ही है कि भारत को जबकि जबर्दस्त सद्भाव हासिल है और उसके कई दोस्त हैं, तब भी उसकी सुई ‘एकला चलो रे’ वाले राग पर अटकी हुई है।

इसी तरह, यह ‘जी-20’ वाले जोशीली दौर से अविश्वसनीय वापसी है, जब भारत को दुनिया में एक उभरते सितारे के रूप में, और नरेंद्र मोदी को एक ऐसे नेता के रूप में देखा जा रहा था जिन्हें हर कोई सम्मान दे रहा था। इसलिए, क्या बदलाव आया है, इसके बारे में हमारी समझ इससे तय होगी कि हमारी अपेक्षाएं क्या थीं। क्योंकि हमने अमेरिका के लिए ‘मित्र-देश’ शब्द का इस्तेमाल करने से हमेशा ही परहेज किया है।

हमें विश्व जनमत से बेहतर संवाद बनाना चाहिए… पहले हमें यह तय करना पड़ेगा कि विश्व जनमत को हम महत्वपूर्ण मानते हैं या नहीं। अगर मानते हैं तो हमें उनके मीडिया, थिंक टैंक, सिविल सोसाइटी से संवाद करना चाहिए। विश्व जनमत शिखर बैठकों से ही नहीं बनता। यह कई पहलुओं के आधार पर आकार लेता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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