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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
इतिहास हर एक जंग को एक नाम दे देता है। आधिकारिक तौर पर तो हाल के भारत-पाकिस्तान संघर्ष में विराम हो गया था, मगर लड़ाई 87 घंटे तक चली। भावी पीढ़ियों के लिए क्या इसे “87 घंटे की जंग’ कहा जा सकता है? वैसे, मैं हैशटैग लायक कोई तीखा नाम देने की जगह विवरण देना चाहूंगा। जो कुछ हमने देखा, उसे दो मोर्चों पर जंग की शुरुआती चाल कहा जा सकता है। इसे आप ट्रेलर कह सकते हैं।
ये चतुराई, धैर्य और सैन्य-ताकत के बूते चलने वाले लंबे युद्ध की पहली चालें हैं। चूंकि, पाकिस्तान ने इसकी शुरुआत की और वह पहलगाम में चीनी साजो-सामान, टेक्नोलॉजी और निर्देशन में लड़ा, इसलिए मैं कहूंगा कि वह सफेद मोहरों से खेल रहा था और चूंकि पहली चाल सफेद मोहरों वाला खिलाड़ी चलता है, इसलिए इस चाल को वह नाम दिया जा सकता है, जिसे शतरंज की भाषा में पहले पीके4 नाम दिया गया था और अब ई4 नाम दिया गया है।
इसका मतलब यह हुआ कि प्यादे को बादशाह के सामने दो घर दूर लाकर खड़ा कर दिया गया और प्रतिद्वंद्वी को इस चाल का जवाब देने के लिए निमंत्रित किया गया। इस चाल के जवाब में विदेशी नामों वाली कई तरह की रणनीति अपनाई जा सकती है, मसलन : इटालियन गेम, स्कॉच गेम या रुई लोपेज।
मुझे जो नाम ज्यादा उपयुक्त लगता है, वह है ‘किंग्स गैंबिट’ (बादशाह का दांव) क्योंकि यह रणनीति ज्यादा आक्रामक है और इसमें कई तरह की चालें चली जा सकती हैं। पाकिस्तान और चीन मिलकर यह खेल खेल रहे हैं और उन्होंने एक प्यादे को आगे बढ़ा दिया है।
किंग और क्वीन की ताकत के साथ प्यादा पाकिस्तान ठीक सामने आ खड़ा हुआ है, बादशाह के घुड़सवार और काउंसेल यानी चीन नेपथ्य में हैं। वह अब भारत की चाल का इंतजार कर रहे हैं। आत्म-संतोष कोई रणनीति नहीं हो सकती। समय बीत रहा है।
तमाम तरह की खबरें बता रही हैं कि सेना ने भी ‘रेड टीम’ गठित कर ली है, जिसमें तेजतर्रार अधिकारियों के एक समूह को दुश्मन की तरह सोचने और जवाबी कार्रवाई करने का काम सौंपा जाता है। ‘रेड टीम’ की तरह सोचिए, अगली चाल क्या हो सकती है।
हमारी सोच का बुनियादी आधार यह है कि हम दो मोर्चों पर लड़ने की दुविधा को लेकर सोच-विचार तो करते रहे हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि एक ही समय दो मोर्चों पर लड़ना पड़ सकता है। 1962 में पाकिस्तान अलग रहा, पर बिना शर्त नहीं।
उसने कश्मीर पर बात करने की मांग रखी, जो अमेरिका-ब्रिटेन के दबाव में शुरू भी हुई। 1965 और 1971 में और कारगिल के बाद चीन अधिकतर अलग ही रहा है, लेकिन अब प्यादे को जिस तरह बादशाह के सामने दो घर दूर लाकर खड़ा किया गया है, उससे मामला बदल गया है।
दो मोर्चों पर लड़ाई जारी है, सिवाय इसके कि चीन सीधी लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं महसूस कर रहा है। उसे पाकिस्तान के रूप में एक योग्य और अनुकूल ‘प्रॉक्सी’ (एवजी) मिल गया है। वह इसे एक साल के अंदर कुछ खास, मसलन 5वीं जनरेशन के लड़ाकू विमानों के मामलों में भारत से आगे निकलने नहीं तो कम-से-कम बराबरी करने के लिए आधुनिक साजो-सामान बेचता रहेगा।
उसके उपग्रह और दूसरे ‘आईएसआर’ (खुफियागिरी, निगरानी, टोही) संसाधन उसके आश्रित को उपलब्ध रहेंगे और मौके पर सलाह तो फौरन मिलती रहेगी ही। पाकिस्तान की ओर से अगली उकसाऊ कार्रवाई में हमेशा की तरह पांच-छह साल नहीं लगेंगे। यह इससे पहले ही की जाएगी, जनाब फील्ड मार्शल अपनी सियासी पूंजी गंवा दें इससे पहले।
तार्किक रूप से ‘रेड टीम’ इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि चीन को अब भारत से सीधी लड़ाई करने की जरूरत नहीं है। उसे सिर्फ पाकिस्तान को इतना कुछ देते रहना है कि वह उसकी ओर से लड़ता रहे। ऑपरेशन सिंदूर के बारे में कोई भी रिपोर्ट पढ़िए, एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संकेत उभरता नजर आएगा।
इस पूरे संघर्ष में आपने किसी अमेरिकी हथियार के इस्तेमाल की खबर नहीं पढ़ी होगी, एफ-16 विमानों के इस्तेमाल की भी नहीं। पूर्व चेतावनी और कंट्रोल सिस्टम से लैस स्वीडन के विमान चीनी इलेक्ट्रॉनिक्स से लदे हुए हैं। सो, इसे आप चीन बनाम भारत संघर्ष के रूप में देखें, जिसमें मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना तैनात थी।
दशकों से हम यही जानते रहे हैं कि चीन हमें दबाने के लिए पाकिस्तान का सस्ते में इस्तेमाल करता रहा है। यह रणनीति अब दो कदम आगे बढ़ चुकी है। पहला कदम यह था कि चीन पूर्वी लद्दाख तक आ धमका और हमने जो सेना पाकिस्तान के लिए रखी थी, उसके एक बड़े हिस्से को उसने वहां बांध दिया। दूसरा कदम पाकिस्तान की ओर से सीधी सैन्य चुनौती के रूप में उठाया गया।
भारत ने जब इस ‘पीके4’ या ‘ई4’ वाली शतरंजी चाल का आक्रामक जवाब दिया तो दोनों पार्टनर पीछे हट गए। जैसा कि सीडीएस अनिल चौहान ने पुणे में दिए एक लेक्चर में कहा, उन दोनों ने सोचा होगा कि 9/10 मई की रात में उन्होंने रॉकेटों/मिसाइलों से जो हमले शुरू किए, वह भारत को घुटने टेकने पर मजबूर कर देंगे।
यह दांव जब नाकाम रहा, उनके सभी रॉकेटों/मिसाइलों को मार गिराया गया और भारत की ओर से विध्वंसक जवाब ने पीएएफ को धूल चटा दी और उसके अड्डे तहस-नहस कर दिए, तब बुद्धिमानी संघर्ष विराम करने में ही थी। उनकी ‘रेड टीम’ अब सोच रही होगी कि अगले मुकाबले के लिए किस तरह तैयारी की जाए।
अब उन्हें इन बातों के कारण चिंता होगी : भारत का बहुस्तरीय एयर डिफेंस, जिसकी अगुआई पीएएफ की मिसाइलों की पहुंच से काफी दूर एस-400 और ब्रह्मोस मिसाइलें करती हैं; चीनी एचक्यू-9 समेत उनकी अपनी एयर डिफेंस की कमजोरी और एंटी-रेडिएशन ड्रोनों के इस्तेमाल से उनकी मिसाइलों को नाकाम या नष्ट करने की भारत की क्षमता। निश्चित मानिए कि चीन और पाकिस्तान मिलकर इन खामियों को दूर करने की जुगत भिड़ा रहे होंगे!
कह सकते हैं कि पाक अब चीन की पश्चिमी कमांड है … चीन पाकिस्तान को अब अपने पश्चिमी थिएटर कमांड के रूप में देखता है। मैं तो यहां तक कहना चाहूंगा कि चीनी सेना पीएलए पाकिस्तान को अपने सबसे नए, छठे थिएटर कमांड के रूप में देखेगी। इसे भारत को उलझाए रखना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता का कॉलम: क्या हम अब दो मोर्चों पर संघर्ष कर रहे हैं?