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- Shekhar Gupta’s Column How Many ‘Sambhals’ Can The Government Handle?
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’
‘कोई कौवा अगर मंदिर के शिखर पर बैठ जाए तो क्या वह गरुड़ बन जाएगा?’ यह सवाल उठाया है संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने। वे पुणे में संजीवनी व्याख्यानमाला में व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने भारत को ‘विश्वगुरु’ के रूप में देखने की संघ की इच्छा भी दोहराई, जिसकी चर्चा सरकार और भाजपा ने इन दिनों बंद कर दी है। इसकी जगह विदेश मंत्री एस. जयशंकर अब ‘विश्वमित्र’ बनने की बात कर रहे हैं।
ऐसे बयान हालांकि जुमले लग सकते हैं लेकिन ये ऐसे हैं नहीं। ऐसा लगता है कि ये देश में सांप्रदायिक संबंधों को बदलने के संकल्पबद्ध प्रयासों के तहत उभरने वाले महत्वपूर्ण उद्गार हैं। ये भाजपा के लिए भी और खासकर हिंदी प्रदेशों में उसके जनाधार के लिए भी उपदेश सरीखे हैं, जो इन दिनों हर मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के दावे कर रहा है। संभल और अजमेर शरीफ इसके ताजा उदाहरण हैं।
चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे सभी दावों पर रोक लगा दी है और वह 1991 के ‘उपासना स्थल अधिनियम’ को चुनौती देने वाली अर्जियों पर विचार कर रहा है, इसलिए भागवत के बयान को इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है।
जब सरसंघचालक ही ऐसी गतिविधियों को रोकने की बात कर रहे हों तो आपको उस पर ध्यान देना ही पड़ेगा, चाहे आप भाजपा के समर्थक हों या आलोचक। भागवत ने कहा कि कुछ लोग सोचते हैं कि वे इस तरह के मंदिर-मस्जिद विवादों को उठाकर हिंदू नेता बन सकते हैं।
उनके इसी उपदेश में ‘विश्वगुरु’ बनने की महत्वाकांक्षा को जगाने की बात भी शामिल है। उन्होंने कहा, भारत किसी युद्ध में विजय के कारण या भाषा, संस्कृति अथवा आस्था या साझा रणनीतिक हितों की वजह से एक राष्ट्र नहीं बना।
वह अपनी अनूठी प्राचीन विचारधारा और समावेशी संस्कृति के कारण एक राष्ट्र बना है। हमने सबको अपना माना। एकता का अर्थ इस विविधता को नष्ट करना या एकरूपता कायम करना नहीं है। इसके बाद वे अपना बड़ा विचार रखते हैं : हम विविधता में एकता की बात करते रहे हैं, अब हमें विविधता को ही एकता मानना होगा। उन्होंने कहा कि हमें शत्रुता पैदा करने वाले या पुराने संदेहों को जगाने वाले मसलों से परहेज करना चाहिए। यह दुनिया को दिखाएगा कि हम सब शांतिपूर्वक साथ रह सकते हैं।
धर्मनिरपेक्षता के समर्थक और राजनीतिक दल भागवत के व्याख्यान का विश्लेषण कर रहे हैं, लेकिन हैरानी की बात है कि इसकी आलोचना धुर दक्षिणपंथी खेमे की ओर से की गई है। खासकर सोशल मीडिया पर। इसकी परीक्षा जल्द ही हो जाएगी, जब सरकार ‘उपासना स्थल अधिनियम’ के बारे में सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दायर करेगी।
देखना यह है कि वह इस अधिनियम का बचाव करती है या इसके खिलाफ वैसा ही रुख अपनाती है, जैसा कि उसके समर्थकों का है। उसके जवाब से यह भी साफ हो जाएगा कि सरसंघचालक की बातों को अब कितनी गंभीरता से लिया जाता है।
भागवत ने काफी महत्वपूर्ण और काफी विस्तार से बयान दिया है। वे आपको अतीत में ले जाकर बताते हैं कि समावेशन की प्रक्रिया चल रही थी, लेकिन औरंगजेब ने इसे नष्ट कर दिया। 1857 में एक मौलवी और संत ने हिंदुओं को राम मंदिर सौंपने का फैसला किया था।
गोवध पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी गई थी। इस एकता को देख अंग्रेजों के कान खड़े हो गए और उन्होंने हमें फिर से बांट दिया। इसका अंत पाकिस्तान के निर्माण में हुआ। हम किसी को फिर ऐसी गड़बड़ी नहीं करने दे सकते।
दरअसल, इससे पहले 2 जून 2022 को भी नागपुर में संघ पदाधिकारियों के प्रशिक्षण शिविर में भागवत ने कहा था कि हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने से बाज आना चाहिए। लेकिन संभल या अजमेर में जो लोग दावे कर रहे हैं, उनसे साफ है कि वे सरसंघचालक की बातों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।
हिंदुत्ववादी राजनीति के दोषों को ठीक करने के लिए भागवत ने यह कोई पहली कोशिश नहीं की है। 15 नवंबर 2022 को अंबिकापुर में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के डीएनए समान हैं। हिंदुत्ववादियों ने उनके इस बयान को भी बहुत पसंद नहीं किया था।
लेकिन सवाल यह है कि वे इन मुद्दों पर आज इतना जोर देकर क्यों बोल रहे हैं? संघ प्रमुख देशभर में फैले अपने कार्यकर्ताओं के व्यापक नेटवर्क से मिलने वाली जानकारियों के आधार पर चलते हैं। और ऐसा लगता है कि उन्हें भाजपा की राजनीति को भटकाने वाले विवादों को लेकर चिंता होती है। इससे संघ भी बदनाम होता है।
यह एहसास बढ़ रहा है कि जगह-जगह उभरता मंदिर-मस्जिद वाला यह विवाद इसी तरह फैलता रहा तो सरकार के लिए अमन-चैन और कानून-व्यवस्था को बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा। सवाल यह है कि देश या भाजपा सरकार कितने संभल संभाल सकती है? इसलिए, हिंदुओं का भी और उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली पार्टी का भी सबसे बड़ा हित इसी में है कि सबको साथ लेकर चले।
जल्द ही हो जाएगी परीक्षा धर्मनिरपेक्षता के समर्थक और राजनीतिक दल भागवत के व्याख्यान का विश्लेषण कर रहे हैं, लेकिन हैरानी है कि इसकी आलोचना दक्षिणपंथी खेमे की ओर से की गई है। इसकी परीक्षा जल्द ही हो जाएगी, जब सरकार ‘उपासना स्थल अधिनियम’ के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जवाब दायर करेगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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शेखर गुप्ता का कॉलम: कितने ‘संभल’ संभाल सकती है सरकार?