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शेखर गुप्ता का कॉलम: इस बार चुनावों में बदली नजर आई रणनीति Politics & News

शेखर गुप्ता का कॉलम:  इस बार चुनावों में बदली नजर आई रणनीति Politics & News

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18 घंटे पहले

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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’

हरियाणा विधानसभा के इस बार के चुनाव में दीवारों पर लिखी इबारतों को पढ़ते हुए उनमें कुछ बातों की गैर-मौजूदगी से हैरत हुई थी। जैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और नाम, उनके द्वारा किए गए वादे कहीं नजर नहीं आए। न ‘मोदी की गारंटी’, न ‘मोदी का भरोसा।’

इस बार भाजपा का चुनावी नारा था- ‘भरोसा दिल से, बीजेपी फिर से’। नारे गढ़ने के मामले में यह पार्टी अपने लिए जो ऊंचा पैमाना निश्चित करती रही है उसके मद्देनजर यह फीका लगता है। और जैसा कि, एक सभा के दौरान कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं ने अलग से बातचीत में इस नारे के बारे में कहा, ‘तुक भी नहीं मिलती!’

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मोदी बिलकुल गायब ही थे। हुआ सिर्फ इतना कि उनकी तस्वीर पार्टी के पोस्टरों-पर्चों पर प्रमुखता से नहीं थी। अधिकतर मामलों में चुनाव क्षेत्र के उम्मीदवार की तस्वीर ही प्रमुख थी। यह लगभग 2014 के विधानसभा चुनाव वाली स्थिति है।

उस दौरान अपने इसी कॉलम में कांग्रेसी उम्मीदवारों के बारे में मैंने ऐसा ही कुछ लिखा था। इस बार समीकरण उलट गया है, लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में। उस समय कांग्रेसी उम्मीदवारों ने गांधी परिवार को पूरी तरह काट दिया था।

पोस्टरों के सबसे ऊपर के दाहिने कोने में मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का चेहरा भी उम्मीदवार की तस्वीर के मुकाबले छोटे आकार में दिखा। सैनी को अप्रैल में शुरू हुए लोकसभा चुनाव से मात्र एक महीने पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया था, क्योंकि पार्टी को देर से एहसास हुआ था कि लगातार दो बार मुख्यमंत्री बनाए गए मनोहरलाल खट्टर अलोकप्रिय हो गए थे।

पोस्टरों पर सैनी के पास एक और चेहरा दिखा, जिसे हममें से अधिकतर लोग नहीं पहचानते। ये मोहनलाल बदोली थे। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष, जिन्हें लोकसभा चुनाव में मिले झटके के बाद नुकसान की भरपाई की कोशिश के तहत इस पद पर नियुक्त किया गया है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को प्रदेश की 10 में से 5 सीटें गंवानी पड़ी थी। हारने वालों में बदोली भी थे, सोनीपत से। इसके बावजूद उन्हें प्रमोशन दिया गया। वे ब्राह्मण हैं।

वफादार जातिगत गठबंधन का हवाला दिए बिना लगातार दो बार चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने बुनियादी बातों का ख्याल रखा। ऊंची जातियां और पंजाबी (अधिकतर बंटवारे में शरणार्थी बनकर आए लोगों के परिवारों से) उसके मुख्य आधार रहे।

ये ज्यादातर लोग ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे बसे हैं, जहां अधिकतर शहरी चुनाव क्षेत्र भी स्थित हैं और जहां से भाजपा ने 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में ज्यादातर सीटें जीती थीं। इस क्षेत्र में जाटों की आबादी सबसे कम है, जिन्हें पार्टी ने अलग-थलग कर दिया।

अगर भाजपा को तीसरी बार भी चुनाव जीतना है या कम से कम इतनी सीटें जीतनी हैं कि नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के रूप में आए और वह अपना खेल बना सके, तो उसे जीटी रोड के किनारे सबसे ज्यादा सीटें जीतनी होंगी।

2014 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को अपने जातीय आधार का प्रदर्शन नहीं करना पड़ा था। वह उसे अपने लिए तब तक पक्का मान सकती थी, जब तक दो बातें काम कर रही हों। एक तो थी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद, और दूसरी थी ‘नमो’ फैक्टर।

ये दोनों पर्यायवाची थे। इसलिए, भाजपा ने 2014 में 90 सीटों वाली विधानसभा में 47 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर लिया। यह इतना नाटकीय क्यों रहा, यह समझने के लिए हमें यह गौर करना होगा कि उससे पहले तक भाजपा हरियाणा में सबसे ज्यादा 16 सीटें 1987 में जीती थी। इनमें से ज्यादातर सीटें जीटी रोड के किनारे बसे शहरी चुनाव क्षेत्रों की थीं।

नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के बूते भाजपा ग्रामीण हरियाणा और खासकर जाटों को जीत सकी थी। वहां जाटों का वोट केवल 22 फीसदी है, लेकिन राजनीतिक-सामाजिक दबदबे के कारण वे अपने वजन से ज्यादा दबाव रखते हैं। लेकिन एक समय पर आकर भाजपा ने फैसला कर लिया कि उसका काम जाटों के बिना भी चल जाएगा।

ॉसो, उसके पहले कार्यकाल में इस समुदाय को दरकिनार किया गया। दूसरे कार्यकाल में उसे देवीलाल के एक परपोते दुष्यंत चौटाला के जरिए आउटसोर्स किया गया। दुष्यंत ने जेल में बंद अपने दादा ओम प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) से अलग होकर अपनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) बना ली। लेकिन यह कदम उलटा पड़ा और खुद को दरकिनार किए जाने से बुरी तरह नाराज जाटों ने कांग्रेस और खासकर उसके नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा का हाथ थाम लिया। इसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर दिखा, भाजपा जाट/ग्रामीण/दलित बहुल सभी सीटों पर हारी, लेकिन अधिकतर शहरी क्षेत्रों में जीती। उल्लेखनीय यह है कि वह एससी के लिए आरक्षित दोनों सीटों पर हारी। यही कारण था कि पार्टी ने इसे इस चुनाव अभियान को लेकर दीवारों पर लिखी सबसे महत्वपूर्ण इबारत के रूप में कबूल किया। जिन बैनरों पर पार्टी उम्मीदवार का चेहरा सबसे बड़ा, और मुख्यमंत्री तथा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के चेहरे दूसरे सबसे बड़े चेहरे हों, उनमें मोदी का चेहरा सबसे छोटा था। मानो भाजपा उन्हें इस चुनाव के प्रतिकूल नतीजे के लिए जिम्मेदार बताने से बचाना चाहती हो, और इसके बावजूद उनके नाम पर वोट हासिल करना चाहती हो। हरियाणा की राजनीति के लिए जो-जो जरूरी हुआ करता था- जाति, परिवारवाद, और दलबदल- इन सब पर मोदी का वर्चस्व हावी हो गया था, मगर अब ये तमाम फैक्टर वापस लौट आए हैं।

पुराने समीकरणों की वापसी नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के बूते भाजपा ग्रामीण हरियाणा और खासकर जाटों को जीत सकी थी। हरियाणा की राजनीति के लिए जो-जो जरूरी हुआ करता था- जाति, परिवारवाद और दलबदल- इन सब पर मोदी का वर्चस्व हावी हो गया था, मगर अब ये फैक्टर्स लौट आए हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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