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शीला भट्ट का कॉलम: स्त्रियों की सुरक्षा जैसे संगीन मसले पर भी सियासत Politics & News

शीला भट्ट का कॉलम:  स्त्रियों की सुरक्षा जैसे संगीन मसले पर भी सियासत Politics & News

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8 घंटे पहले

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शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार

2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही आम चर्चाएं या तो मोदी के खिलाफ होती हैं या उनके समर्थन में। सामान्य विमर्श ध्रुवीकृत हो चुका है, उसमें कोई मध्य-मार्ग नहीं अपनाया जाता है।

यह सिलसिला 2024 के लोकसभा चुनावों तक जारी रहा है। लेकिन अब समय आ गया है कि हम तमाम मसलों पर ऐसी कोई सख्त पोजिशन लेकर भारतीय राजनीति, राष्ट्रीय मुद्दों या देश की दशा-दिशा का आकलन करना बंद करें।

जब 19 साल की दलित लड़की के साथ हाथरस में 2020 में गैंगरेप हुआ था या जब जम्मू के पास कठुआ में एक बच्ची के साथ 2018 में सामूहिक दुष्कर्म हुआ था, तब उन घटनाओं का भी भरपूर राजनीतिक उपयोग किया गया था। लोग पक्ष-विपक्ष में बंट गए थे।

जब से कोलकाता में एक डॉक्टर छात्रा के साथ दुष्कर्म के बाद उनकी नृशंस हत्या की गई है, तब से ममता बनर्जी और उनकी टीएमसी सरकार बहुत दबाव में है। अब सबको ख्याल आ रहा है कि पिछले 10 सालों से महिलाओं पर हुए अत्याचार को राजनीतिक रंग देने से कितना नुकसान हुआ है।

देश में कितनी सारी चर्चाएं इंटरनेट, सोशल मीडिया और प्रिंट-टीवी मीडिया में होती रहती हैं, फिर भी गम्भीरता से ठोस कदम उठाए नहीं जा रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि सामाजिक, जातिगत, ऐतिहासिक और आर्थिक मुद्दों पर भी हम ज्यादातर राजनीतिक दृष्टि से चर्चा करते हैं।

ये देखने लायक है कि ममता बनर्जी के विद्वान समर्थक, प्रख्यात पत्रकार और यूट्यूब पर जिनको करोड़ों लोग फॉलो करते हैं और देखते-सुनते हैं, वो भी कुछ देरी से ही यह समझ पा रहे हैं कि दुष्कर्म जैसी घटनाएं बहुत गंभीर, सूक्ष्म और संतुलित विश्लेषण का विषय हैं। उनकी जड़ें समाज में फैले जहर से लिप्त हैं और उनकी चर्चा राजनीति, धर्म या जातिवाद की भाषा में नहीं हो सकती।

ये भी देखने लायक नजारा है कि अब ममता बनर्जी के सेक्युलर-लिबरल समर्थक भारत भर में हो रहे दुष्कर्मों और महिलाओं के साथ हो रहे हर प्रकार के घोर अन्याय के समाचार अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं।

ऐसा करके वो कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। अच्छी बात है कि महिलाओं की सुरक्षा की गंभीर समस्या को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। देश के माथे पर लगा यह एक कलंक ही है कि हमारे यहां हर साल दुष्कर्म के 30,000 से ज्यादा मामले दर्ज हो रहे हैं।

लेकिन पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि स्थानीय किस्म की घटनाओं में भी प्रधानमंत्री या सम्बंधित मुख्यमंत्री से सवाल पूछे जाते थे। फिर अब ममता बनर्जी को जवाबदेह ठहराए जाने पर इतनी किंतु-परंतु क्यों है? समय आ गया है कि हम भारतीय राजनीति को पढ़ने की हमारी आदतों को बदलें।

इस देश में दो बड़े वर्ग हैं। एक बहुत बड़ा वर्ग है, जिसके पास सत्ता है, जिसको सत्ता चाहिए, जो सत्ता पाने के इंतजार में हैं। वे सब वोट की चाह रखने वाल हैं। वे कमोबेश एक ही तल पर हैं, उनके चरित्र में 19-20 का फर्क भर होता है।

उनके समर्थक-वर्ग को भले उनमें काफी फर्क नजर आए, क्योंकि उनकी सार्वजनिक छवि बहुत मेहनत से सजाई गई होती है, लेकिन असल में वाम, दक्षिण और मध्य की राजनीति करने वाले सभी नेताओं को वोटों की लालसा है। और, बाकी सब राजनीति है।

दूसरा वर्ग उनके ठीक सामने खड़ा है। आम आदमी का। ना उसकी बड़ी पहचान है। ना उसको कोई जानता है, ना पूछता है। उसकी कीमत एक वोट के बराबर है। कुछ भाग्यशाली संघर्ष करके जरूर अपनी हैसियत ऊंची बना पाते हैं। तब चतुराई इसी में है कि राजनीति की चर्चा करते हुए कभी भी एक्स्ट्रीम स्टैंड न लें, अतियों पर न जाएं।

जो लोग आज पश्चिम बंगाल के कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठी आवाजों का रुख मोड़ना चाहते हैं और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार का परोक्ष बचाव कर रहे हैं, उन सभी ने हाथरस की घटना के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा को पुरजोर तरीके से जिम्मेदार ठहराया था। उस वक्त भी देश में हर रोज 80 से ज्यादा दुष्कर्म होते थे। और अन्याय की यह अटूट गाथा जाने कितने दशकों से चल रही है।

अगर हाथरस में हुए दुष्कर्म की जिम्मेदारी सीएम योगी की बनती है तो पश्चिम बंगाल में एक सरकारी अस्पताल में जो भयंकर हादसा हुआ है, उसकी जिम्मेदारी ममता बनर्जी को लेनी ही पड़ेगी। अहम बात ये है कि दुष्कर्म जैसे संगीन मसलों में भी अगर राजनीति नहीं होती तो महिलाओं का तो भला होता ही, समाज भी इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा करके आगे बढ़ता।

लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है। और सोचने की बात ये भी है कि कोई भी दुष्कर्मी चाहे जिस पार्टी से सम्बद्ध हो, वो जितना चिंता का विषय है, उससे बड़ी चिंता का विषय यह है कि आखिर वो व्यक्ति हमारे ही समाज का है। वह भाजपा, कांग्रेस, सपा या तृणमूल किसी से भी जुड़ा हो, पहले वह भारतीय है।

हमारे ही पड़ोस में कहीं उसकी परवरिश हुई है, और हमारे ही समाज से उठकर वो गलत रास्ते पर चला गया है। दिल्ली में चलती बस में हुए दुष्कर्म के बाद नया कानून आया था, लेकिन जमीन पर हालात नहीं बदले।

महिलाओं के साथ जुड़े मामलों में भी राजनीतिक लाभ लेना सभी पार्टियों की आदत हो गई है। जब सोशल मीडिया की ताकत बढ़ रही है, जब घर-घर में जागरूकता आ रही है, तब भी बच्चियों के साथ ऐसे जघन्य अपराध होना राष्ट्रीय शर्म है। समय का तकाजा है कि सभी दल राजनीति से ऊपर उठें और ऐसे संगीन मसलों पर नए सिरे से, नई भाषा में चर्चा करें।

दोहरा रवैया ठीक नहीं है…

अगर हाथरस में हुए दुष्कर्म की जिम्मेदारी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बनती थी तो पश्चिम बंगाल में जो हादसा हुआ है, उसकी जिम्मेदारी भी ममता बनर्जी को लेनी ही पड़ेगी। दुष्कर्म जैसे संगीन मसलों में भी अगर राजनीति नहीं होती तो महिलाओं का भला ही होता। ​​​​​​

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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