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- Sheela Bhatt’s Column Many Stories Have Emerged From The Maha Kumbh Of Prayagraj
शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
जिस तरह भारत के आमजन ने महाकुम्भ के दौरान प्रयागराज के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने के लिए अति-उत्साह दिखाया है, वो बताता है कि देश का बड़ा वर्ग अपनी परम्पराओं में केवल विश्वास ही नहीं रखता, वे उनका जीवनामृत भी हैं।
उन्हें अच्छा लगता है कि वे डुबकी लगाने की सदियों पुरानी मान्यता को जीवित रखते हैं। हमारी आध्यात्मिकता भले घटी हो, पर हमारे लिए आस्था का कोई पर्याय नहीं। जीने का और कोई सहारा हो भी सकता है, वो हमें सोचना जरूरी भी नहीं लगता है।
दुनिया बदलती है, भारत में भी एक वर्ग काफी हद तक बदला है। लेकिन महाकुम्भ में हमने देखा कि हमारी आबादी का बहुत बड़ा तबका- जिसने भारत की मूलभूत पहचान बनाई थी और उसे सदियों के कालचक्र में धीरे-धीरे संवारा है- वो अपनी श्रद्धा के साथ जी रहा था और जी रहा है।
सरकार के आंकड़ों को मानें ना मानें, फिर भी जिस तादाद में गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों ने कुम्भ में स्नान करके सूर्य को अर्घ्य दिया है, उसे देखकर ख्याल आता है कि उनकी अभावों से भरी जिंदगी में आखिर श्रद्धा के सिवाय है भी क्या? शासकों ने, ताकतवर लोगों ने, बहुत पढ़-लिखकर बड़े बन गए लोगों ने अपना भविष्य बनाया है। लेकिन उन लोगों का भविष्य तो डुबकी लगाने के बाद मिलने वाले अपार संतोष और एक छोटी-सी आशा के सहारे ही टिका है।
जब एआई का दौर शुरू हो रहा है, तब ये आस्था भरा अस्तित्व भारत को खास पहचान देता है। जब दावा किया जा रहा हो कि अगले दस सालों मैं रोबोट मनुष्यों की तरह ही सोचने, महसूस करने लगेगा, तब हमारी ये आस्था बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
कुम्भ का सबसे बड़ा संदेश ये उभरकर आया है कि एक बहुत बड़ा हिंदू समाज एक ही तरह से सोचता है और वह कई परिवर्तनों के लिए तैयार भी है, लेकिन अपनी परम्परा और आस्था को ही अपने जीने का एकमात्र सहारा मान रहा है।
अगर बदइंतजामी और तकलीफों के बावजूद छोटे, बड़े और बुजुर्ग अनेक किलोमीटर पैदल चलकर भी संगम की ओर जा रहे हैं, तो यह आने वाले कल का एक ठोस अहसास है। आज लाखों लोग हैं, जो टेक्नोलॉजी को अपनाकर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन उनसे कई गुना ज्यादा करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अपने जीवन के संचालन का पूरा हक सिर्फ अपनी आस्था को दिया है।

पिछले हफ्ते आजतक के एंकर गौरव सावंत संगम के सबसे निकट की एक चाय दुकान पर बैठे थे। तड़के 5 बज रहे थे। एक बहुत गरीब महिला वहीं जमीन पर बैठी चाय पी रही थी। गौरव को 100 रुपयों का एक नोट रास्ते पर पड़ा मिला। उसने उसे उस गरीब महिला को देते हुए कहा कि ये पैसे आप रख लो।
उस गरीब महिला ने कहा- “नहीं बेटा, पाप लगीन!’ अभी सूर्योदय भी नहीं हुआ था और वहां उसे देखने वाला कोई नहीं था, लेकिन आस्था से भरी वह महिला बुंदेलखंड से बड़ी मुसीबतें सहन कर त्रिवेणी पहुंची थी। ना उसे कोई शिकायत थी, ना वो कुछ लेने आई थी। उसकी आस्था इतनी भर थी कि त्रिवेणी का नीर उसके मन को निर्मल और शांत बनाएगा। जो कुम्भ नहीं गए, वो उन बुंदेलखंडी माता को भी प्रणाम कर सकते हैं!
कुम्भ में बहुत कुछ गलत भी हुआ, बदमाशों ने भोले भक्तों को लूटा। गरीब और अमीर को मिलने वाली सुविधाओं में बहुत अंतर दिखा। भगदड़ का दुर्भाग्यपूर्ण हादसा भी हुआ, जिसमें कई जानें गईं। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है करोड़ों लोगों ने यहां आकर अपने मन की ताकत को मजबूत किया।
सब लोग नींद की गोलियां नहीं खाते, किताबें नहीं पढ़ते, मनोविश्लेषक के पास नहीं जाते। उनके पास उतने पैसे नहीं कि वो हिल स्टेशन या पीवीआर सिनेमा जाकर अपने दुख को हल्का कर पाएं। यह उन भारतवासियों का कुम्भ था, जो मजबूरियों के बीच बिना सुख-सुविधाओं के कैसे जिया जाए, यह जानते हैं।
ये सच है कि महाकुम्भ के आयोजन से मोदी और योगी काे राजनीतिक लाभ होगा। इस आयोजन का स्केल इतना बड़ा था और यूपी पुलिस और भारतीय रेलवे ने इतने बड़े पैमाने पर इसके लिए बंदोबस्त किया था कि वो अपने आप में एक कहानी है।
बस यही बात खटकी कि हिंदुओं के इस महापर्व को कांग्रेस ने संपूर्ण तरीके से भाजपा के हवाले कर दिया! नेहरू और इंदिरा ने भी जिस परम्परा का आदर किया था, राहुल गांधी ने उसकी अनदेखी करके कांग्रेस का बहुत बड़ा नुकसान किया है।
सब लोग नींद की गोलियां नहीं खाते, किताबें नहीं पढ़ते, मनोविश्लेषक के पास नहीं जाते। उनके पास उतने पैसे नहीं कि वो हिल स्टेशन जाएं। यह उन भारतवासियों का कुम्भ था, जो सुख-सुविधाओं के बिना भी जीना जानते हैं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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शीला भट्ट का कॉलम: प्रयागराज के महाकुम्भ से कई कथानक सामने आए हैं