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शीला भट्ट का कॉलम: दलित वोट ही अब कांग्रेस पार्टी की आखिरी उम्मीद हैं Politics & News

शीला भट्ट का कॉलम:  दलित वोट ही अब कांग्रेस पार्टी की आखिरी उम्मीद हैं Politics & News

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5 घंटे पहले

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शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार

नेहरू के परनाती राहुल गांधी ने अब नीली टी-शर्ट पहनना शुरू कर दिया है, जो एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम है। नीला रंग भारतीय दलितों के बीच आम्बेडकरवादी आंदोलन की पहचान है। अगर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल को गांधी-नेहरू से ज्यादा आम्बेडकर अपनी राजनीति के लिए उपयोगी लगते हैं, तो इससे पता चलता है कि आम्बेडकर समय की कसौटी पर कितने शानदार ढंग से खरे उतरे हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि दलितों को वह राजनीतिक महत्व मिलना शुरू हो गया है, जिसके वे सदियों से हकदार थे।

17 दिसम्बर को राज्यसभा में अमित शाह के भाषण के बाद जो विवाद शुरू हुआ है, वह भारत की समकालीन राजनीति को कई रिमाइंडर और सबक दे रहा है। भले ही शाह ने किसी अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था और वे आम्बेडकर की बिल्कुल भी आलोचना नहीं कर रहे थे, लेकिन विपक्ष ने उनके बयान की जो ‘व्याख्या’ की, उसके कारण वे कांग्रेस के हमले का शिकार हो गए। जो बात कही भी नहीं गई हो, उसकी राजनीतिक व्याख्या भी अपने हितों के लिए करके उसे विवाद की शक्ल दी जा सकती है।

लोकसभा चुनाव में भाजपा स्पष्ट बहुमत से पिछड़ गई थी। यूपी में कई सीटों पर भाजपा के खराब प्रदर्शन का एक बड़ा कारण दलित वोटों का उससे दूर जाना था। तब भाजपा ने आरोप लगाया था कि कुछ दलित कांग्रेस और सपा के इस दुष्प्रचार में फंस गए थे कि अगर भाजपा को भारी बहुमत मिला तो वह संविधान बदल देगी और आरक्षण खत्म कर देगी।

इस अफवाह ने भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। दलित वोटों की ताकत नजर आई। कांग्रेस ने भाजपा की इसी दुखती रग को दबाने के लिए इस मुद्दे को अब बड़ी चतुराई से उठाया है। 2014 के बाद से भाजपा का उदय मुख्य रूप से इसीलिए हुआ था, क्योंकि वह ‘ब्राह्मण-बनिया’ पार्टी के टैग को हटाने में सफल रही थी। पार्टी के महासचिव के तौर पर अमित शाह ने 2014 में यूपी में एक रणनीति तैयार की थी, जिससे भाजपा को ओबीसी और कुछ हद तक दलित वोट पाने में मदद मिली।

हालांकि दलितों के साथ भाजपा का रिश्ता अभी विकसित ही हो रहा है और अलग-अलग राज्यों और निर्वाचन क्षेत्रों में इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। भाजपा को गैर-जाटव दलित वोट कुछ हद तक मिल रहे हैं। लेकिन फिर भी उसे इसमें उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी गैर-यादव ओबीसी वोटों को अपने पक्ष में करने में मिली, खासकर यूपी में।

शाह के बयान को इसलिए तूल दिया गया, क्योंकि विपक्ष को पता है अगर दलित पूरी ताकत से भाजपा से जुड़ गए तो हिंदुत्व की राजनीति इतनी मजबूत हो जाएगी कि फिर भाजपा को दशकों तक पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ेगा। हरियाणा और महाराष्ट्र में हार के बाद भी कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हुईं, जहां लोकसभा में उसके खिलाफ वोट करने के बाद दलित भाजपा के पाले में लौट आए।

दलित वोटों को भारतीय राजनीति में रणनीतिक महत्व मिलने का कारण है। भाजपा के खिलाफ विपक्षी राजनीति तब कमाल कर देती है, जब मुस्लिम, दलित और उम्मीदवार की अपनी जाति के वोट भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ लामबंद हो जाते हैं।

हिंदुत्व वोट का रामबाण इलाज मुस्लिम-दलित वोटों को एकजुट करना है। कांग्रेस के लिए दलित वोट ही उसकी आखिरी उम्मीद हैं। नवबौद्ध दलितों को हिंदुत्ववादी भाजपा के खिलाफ वोट देने के लिए लुभाया जा सकता है।

इतिहास के नजरिए से हम यह देखकर आश्चर्यचकित हो सकते हैं कि सात दशकों के बाद आम्बेडकर ने दलितों के बीच दैवीय आभा प्राप्त करने में नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन के कई अन्य दिग्गजों को पीछे छोड़ दिया है।

वर्तमान राजनीतिक विमर्श में आम्बेडकर की तुलना में गांधी और नेहरू के आलोचक अधिक हैं। आज आम्बेडकरवादी विचारधारा के खिलाफ बोलने वाले एक भी नेता का नाम लेना मुश्किल है। आम्बेडकर और दलितों की पहचान का विचार भी अब एक हो गया है।

मुख्य रूप से कांग्रेस के दौर की राजनीति में आम्बेडकर को दलित-नायक की भूमिका तक ही सीमित कर दिया गया था। आम्बेडकर की विरासत से दलितों को जो आत्मविश्वास, सुरक्षा और गौरव मिलता है, उसकी तुलना उनके किसी अन्य समकालीन नेता से नहीं की जा सकती।

यही कारण है कि जब कांग्रेस ने आम्बेडकर को लेकर अमित शाह पर हमला बोला तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शाह का बचाव करने के लिए एक्स पर पोस्ट किया। आम्बेडकर के मुद्दे पर भाजपा कांग्रेस को एक इंच भी जगह देने को तैयार नहीं है।

भारतीय राजनीति जाति, धर्म और गरीबी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। भाजपा के आलोचक सोचते हैं कि पार्टी की सफलता हिंदुत्व के कारण है, लेकिन आम्बेडकर विवाद साबित करता है कि जातिवादी राजनीति अभी पिछड़ी नहीं है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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