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- Sheela Bhatt’s Column BJP Now Has Its Eyes On The Tamil Durga Of The South
शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
गृहमंत्री अमित शाह की हाल की चेन्नई यात्रा के पीछे कई पहलू हैं। वहां उन्होंने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले अन्नाद्रमुक के साथ भाजपा के गठबंधन की घोषणा की, जिससे यह द्रविड़ पार्टी अब एक बार फिर से एनडीए के पाले में आ गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष अपने तीसरे कार्यकाल की बड़ी चुनौतियों में बंगाल, तमिलनाडु, केरल को जीतना है।
मोदी की राष्ट्रीय अपील और भाजपा के विशाल संसाधनों के बावजूद इन राज्यों में जीतना उसके लिए मुश्किल रहा है। पिछले 78 सालों में इन राज्यों ने कभी भी भाजपा-संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा या हिंदुत्व के उनके संस्करण को स्वीकार नहीं किया है। भाजपा इन राज्यों में हिंदू पहचान को पुष्ट करने वाली वैकल्पिक विचारधारा पेश कर रही है। यह सिर्फ भाजपा के लिए ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी एक बड़ी वैचारिक लड़ाई है।
हमें इसका अंतिम हश्र जानने में कुछ दशक और लगेंगे। जब भी भाजपा बंगाल या तमिलनाडु में हारती है, तो उसके आलोचक कहते हैं कि हिंदीभाषी मतदाताओं के साथ अपने अनुभव के चलते भाजपा औसत बंगालियों और तमिलों की बारीकियों को समझ नहीं पाती है। जब इन राज्यों के जातीय-मतदाता भाजपा को उसके मौजूदा स्वरूप में स्वीकार करेंगे, तब यह भारतीय सेकुलर राजनीति की एक क्रांतिकारी घटना होगी। भाजपा इसे समझती है।
द्रविड़ आंदोलन में भी बदलाव आ रहा है। 70 के दशक की तुलना में अब मुख्यधारा का भारत एक औसत तमिल के लिए कहीं अधिक आकर्षक और स्वीकार्य है। द्रविड़ आंदोलन के संस्थापक पेरियार या द्रमुक के संस्थापक अन्नादुरै सरीखे दक्षिण की राजनीति में आज कोई बौद्धिक दिग्गज नहीं हैं, जो पहचान-आधारित राजनीतिक प्रयोगों का विरोध कर सकें। केंद्र में भी तमिल-नेतृत्व का बड़ा शून्य है।
एमके स्टालिन और अन्नाद्रमुक के ईपीएस के रूप में पहचाने जाने वाले एडप्पाडी करुप्पा पलानीस्वामी अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते, और न ही उन्हें तमिल भाषा समाज का पूरा भरोसा हासिल है। तमिलनाडु में भाजपा के पास कभी भी करुणानिधि और जयललिता जैसा नेतृत्व नहीं रहा। उसके पास शक्तिशाली जातियों या वर्गों का समर्थन नहीं है।

भाजपा के पास द्रविड़ समाज को आकार देने का संस्थागत इतिहास नहीं है, न ही राज्य के विकास में उसकी गहरी जड़ें हैं। लेकिन ये तथ्य भाजपा को विचलित नहीं करते। क्योंकि वह एक नया वोट-आधार तैयार कर रही है। लोकसभा चुनाव से पहले मोदी ने काशी और तमिलनाडु के बीच विभेद को खत्म करने की कोशिश की। धार्मिक राजत्व का तमिल प्रतीक सेंगोल संसद में स्थापित किया गया।
मोदी और शाह दोनों ने तमिल भाषा के प्रति पार्टी के सम्मान को परिभाषित किया। पिछले दशक का एक बड़ा राष्ट्रीय घटनाक्रम यह रहा है कि भाजपा ने चुपचाप अपने नारे हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान में सुधार किया है। अब वे “हिंदी और सभी क्षेत्रीय भाषाओं’ की बात करते हैं। 2023-24 में, भाजपा ने तमिलनाडु में जबर्दस्त संसाधन लगाए, लेकिन लोकसभा में सीटें जीतने में विफल रही। उसे 11.24% वोट मिले।
द्रमुक तमिल राजनीति की केंद्रीय धुरी है। वह सत्तारूढ़ है, साधन-सम्पन्न है, उसके पास प्रशिक्षित कैडर और विशाल संगठन है। लेकिन भ्रष्टाचार, शराब नीति, बिगड़ती कानून-व्यवस्था के कारण सत्ता-विरोधी लहर है। इस बीच कुछ एक्स फैक्टर्स भी उभरे हैं। सुपरस्टार अभिनेता जोसेफ विजय चंद्रशेखर की तमिलगा वेत्री कषगम ने तमिल राजनीति में धूम मचा दी है।
वे वैचारिक रूप से द्रमुक के करीब हैं, इसका मतलब है कि वह द्रमुक के वोटों में सेंध लगा सकते हैं। वे अन्नाद्रमुक को द्रमुक विरोधी वोट हासिल करने से भी रोकेंगे। अमित शाह इस खेल को समझ गए हैं। उनका प्राथमिक मिशन विपक्षी वोटों में टूट को रोकना है।
- भाजपा की राजनीतिक यात्रा में 2026 का तमिलनाडु चुनाव मील का पत्थर साबित होगा। यह मामूली बात नहीं है कि अन्नाद्रमुक से गठबंधन करके एनडीए ने उसके पांच सदस्यों के साथ राज्यसभा में 122 का बहुमत हासिल कर लिया है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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शीला भट्ट का कॉलम: दक्षिण के तमिल-दुर्ग पर अब भाजपा की नजरें हैं