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- Sheela Bhatt’s Column Kejriwal Could Not Fulfil The Promises He Made To Delhi
शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली के नतीजों ने विपक्ष को एक जोरदार संदेश दिया है : अगर वे भाजपा की बढ़ती ताकत के खिलाफ एकजुट नहीं हुए तो भारतीय राजनीति में लंबे समय तक इस पार्टी का दबदबा देखने को मिलेगा। दिल्ली मिनी-इंडिया की तरह है।
वहां के नतीजे इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह इस शहर में बड़ी संख्या में रहने वाले पंजाबियों, बिहारियों, सरकारी कर्मचारियों, पहाड़ियों, मुसलमानों, महिलाओं और दलितों सहित कई तरह के भारतीय-समुदायों के मूड को दर्शाता है।
दिल्ली की कई सीटों पर आप और भाजपा उम्मीदवारों के बीच वोटों का अंतर कमोबेश एक जैसा है, वहीं कांग्रेस को मिले वोट इंडिया गठबंधन के नाकाम प्रयोग के बारे में बहुत कुछ बताते हैं। भाजपा को 45.76 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि आप को 43.55 प्रतिशत वोट मिले हैं।
इसका मतलब है कि अरविंद केजरीवाल और आप हार जरूर गए हैं, लेकिन अभी खत्म नहीं हुए हैं। कांग्रेस को 6.36 प्रतिशत वोट मिले हैं। केजरीवाल भाजपा के प्रवेश वर्मा से 4,089 वोटों से हार गए। कांग्रेस उम्मीदवार संदीप दीक्षित भी हारे, लेकिन उन्हें 4,568 वोट मिले। यानी अगर कांग्रेस और आप ने गठबंधन कर लिया होता तो भाजपा के लिए चुनौती कठिन होती।
गृह मंत्री अमित शाह केजरीवाल के खिलाफ भाजपा की बड़ी रणनीति के मास्टरमाइंड थे और आखिर में यह उनकी जीत है। शाह को इसके लिए 10 साल इंतजार करना पड़ा। पारम्परिक राजनीति में उथल-पुथल मचाने वाले एक अलग तरह के नेता को बैलेट-बॉक्स के जरिए हार मिली।
शाह ‘फ्रीलांसर’ केजरीवाल का कड़ा विरोध करते रहे हैं, क्योंकि केजरीवाल ऐसी राजनीति करना चाहते थे, जिसमें वे दक्षिणपंथी भाजपा और वामपंथी कांग्रेस दोनों के वोटों पर कब्जा कर सकें। केजरीवाल विचारधारा की लड़ाई में शामिल हुए बिना सत्ता का आनंद लेना चाहते थे। यही कारण है कि भाजपा केजरीवाल से मुकाबला करने के लिए कमर कसे थी। हालांकि भाजपा की मेहनत का लाभ कांग्रेस को मिलेगा, क्योंकि आप कई इलाकों में कांग्रेस के वोट-बैंक के लिए बड़ा खतरा थी।
डेढ़ दशक पहले केजरीवाल वाकई एक अलग तरह के नेता थे। वे एक ऑर्गेनाइजर थे और संस्थाएं खड़ी करने की क्षमता रखते थे। अपना राजनीतिक करियर बनाने के लिए उन्होंने सबसे पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई।
उन्होंने शरद पवार जैसे बड़े नेताओं को निशाने पर लिया और भारत के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अम्बानी के खिलाफ कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में एक विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की। लेकिन चुनावी राजनीति में आते ही उन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे को छोड़ दिया।
इससे पहले कि लोग उनके अवसरवाद को समझ पाते, वे सुशासन प्रदान करने के ठोस वादे करने लगे। उन्होंने अहम मुद्दा उठाया था, क्योंकि शहरी भारत का नागरिक-प्रबंधन और इसके लिए स्थानीय सरकारों के बजट का प्रावधान तमाम सरकारों की सबसे बड़ी विफलताओं में से हैं।
जब केजरीवाल के सामने विचारधारागत रूझानों को दिखाने का समय आया, तब भी वे संदिग्ध खेल खेलते रहे। दिल्ली दंगों के दौरान उन्होंने न तो मुस्लिम या हिंदू पीड़ितों की मदद की, न ही उन्होंने शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के पक्ष में या उनके खिलाफ स्पष्ट रूप से अपनी आवाज उठाई।
केजरीवाल एक दशक तक इसलिए सफल रहे थे, क्योंकि उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, जल-आपूर्ति, गरीबों के लिए मुफ्त बिजली, मुफ्त सार्वजनिक परिवहन जैसे नागरिक मुद्दों को उठाया। लेकिन नतीजे बताते हैं कि लोगों ने केजरीवाल के असफल वादों पर बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
दिल्लीवासियों की दुर्दशा देखने लायक है। वायु-प्रदूषण राष्ट्रीय शर्म की बात है। कचरे का साम्राज्य है। जब भी केजरीवाल अपनी हार का जायजा लेंगे, उन्हें यमुना के गंदे पानी का भी जिक्र करना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग यह सुन-सुनकर तंग आ चुके थे कि केंद्र सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही है।
ये सच है कि भाजपा ने केजरीवाल को टक्कर देने के लिए राजनीतिक चालें चलीं, लेकिन यह दिल्ली में एक्यूआई के 400 से अधिक होने का कारण नहीं हो सकता था। महिलाओं के लिए बस-यात्रा निःशुल्क है, लेकिन बसें कभी समय पर नहीं आतीं। दिल्ली पर ही ध्यान केंद्रित करते हुए और पार्टी के भीतर सुसंगत विचार-प्रक्रिया का निर्माण किए बिना ही केजरीवाल अपनी महत्वाकांक्षाओं को विस्तार देने लगे।
पंजाब में आप का राज भी कुछ ऐसा नहीं है, जिससे मतदाताओं को प्रेरणा मिलती। केजरीवाल ने कई गलतियां कीं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने दिल्ली से जो वादे किए थे, उन्हें निभाया नहीं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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शीला भट्ट का कॉलम: केजरीवाल ने दिल्ली से जो वादे किए थे, उन्हें वे निभा नहीं पाए