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- Ruchir Sharma’s Column The Growth Balloon In America Will Burst If Not Today Then Tomorrow
रुचिर शर्मा ग्लोबल इन्वेस्टर व बेस्टसेलिंग राइटर
दुनिया के वित्तीय बाजारों में अमेरिका का हिस्सा असाधारण रूप से अधिक है। इसे मैं एक ऐसा ‘बबल’ कहता हूं, जो आज नहीं तो कल फूटेगा जरूर। लगभग हर वॉल स्ट्रीट विश्लेषक कह रहा है कि 2025 में भी अमेरिकी शेयर बाकी दुनिया से बेहतर प्रदर्शन करना जारी रखेंगे। लेकिन यह सारा उत्साह केवल इसकी पुष्टि करता है कि अमेरिका की विशिष्टता को लेकर आम सहमति बहुत अधिक है।
वॉल स्ट्रीट का रुख अब लोकप्रिय मीडिया तक भी पहुंच गया है। यह बाजार के रूझानों को अमूमन तभी पकड़ता है, जब वे अच्छी तरह से स्थापित हो चुके होते हैं और समाप्त होने के करीब होते हैं। ऐसे में अमेरिकी श्रेष्ठता का प्रचार अब टीवी, रेडियो, पॉडकास्ट, अखबारों के कॉलम, पत्रिकाओं की आमुख कथाओं का विषय बन गया है। और भविष्य के ट्रेंड्स को गलत बताने का इनका पुराना ट्रैक रिकॉर्ड है!
अमेरिका अपने कॉर्पोरेट्स की प्रभावशाली आमदनी के कारण अव्वल बना रह सकता है। अगर बड़ी टेक फर्मों के असाधारण मुनाफे न होते और सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर खर्च न किया जाता तो उसकी आय-वृद्धि इतनी नहीं हो सकती थी। समय के साथ, बड़े पैमाने पर होने वाले मुनाफे प्रतिस्पर्धाओं में खो जाते हैं। फिर, अब तक दर्ज किए गए सबसे भारी घाटे के खर्च से विकास और मुनाफे को भी कृत्रिम रूप से बढ़ावा मिल रहा है।
बहरहाल, अधिकांश अर्थशास्त्री कहते हैं कि अमेरिकी परिवारों और कंपनियों की बैलेंस शीट अच्छी स्थिति में होने के कारण उसका आर्थिक उछाल कायम रहेगा। राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनाल्ड ट्रम्प की टैरिफ या इमिग्रेशन योजनाओं के बारे में चिंता करने वाले कुछ लोग हालांकि सोचते हैं कि इससे अमेरिका से ज्यादा विदेशी अर्थव्यवस्थाओं को नुकसान होगा।
लेकिन हर उजली कहानी का एक स्याह पहलू होता ही है। अमेरिका में सरकारी कर्ज की लत तेजी से बढ़ रही है। मेरी गणनाओं से पता चलता है कि अब अमेरिकी जीडीपी वृद्धि का एक अतिरिक्त डॉलर उत्पन्न करने के लिए लगभग दो डॉलर का नया सरकारी कर्ज चाहिए- जो कि सिर्फ पांच साल पहले की तुलना में 50 प्रतिशत की वृद्धि है।
अगर कोई अन्य देश इस तरह से खर्च कर रहा होता, तो निवेशक भाग जाते। लेकिन फिलहाल तो उन्हें लगता है कि दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्था होने और रिजर्व करेंसी जारी करने वाले देश के रूप में अमेरिका कुछ भी कर सकता है।
बहुत सम्भव है कि शायद और बड़े घाटे या नीलामियों से ट्रिगर होकर ये ही निवेशक अगले साल तक अमेरिका से ऊंची ब्याज दरों या थोड़े राजकोषीय अनुशासन के प्रदर्शन की मांग करने लगेंगे। ये मांगें अमेरिका को कम से कम अस्थायी रूप से सरकारी खर्च पर अपनी निर्भरता से दूर कर देंगी और बदले में आर्थिक विकास और कॉर्पोरेट मुनाफे को कमजोर कर देंगी।
शायद जर्मनी और फ्रांस अपनी आर्थिक हालत को दुरुस्त कर पाएंगे- जैसा कि यूनान और स्पेन ने एक दशक पहले किया था। शायद ट्रम्प-टैरिफ और कमजोर घरेलू मांग के दबाव में चीन को भी आखिरकार अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए खपत को बढ़ावा देना होगा।
अमेरिका से मंत्रमुग्ध विश्लेषक यह तो बताते हैं कि अमेरिका एक सदी से दुनिया का प्रमुख बाजार है, लेकिन वो भूल जाते हैं कि पिछले 11 दशकों में से 6 में उसका शेयर बाजार बाकी दुनिया से पिछड़ा है। सबसे हाल में 2000 के दशक में उसने शून्य रिटर्न दिया, जबकि उभरते बाजारों का मूल्य तीन गुना हो गया।
दूसरे देशों की तुलना में अमेरिका का अविश्वसनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन भी समाप्त हो सकता है, अगर वहां पर विकास की गति धीमी हो जाती है, या दुनिया की अन्य प्रमुख आर्थिक शक्तियों में तेजी आती है, या कोई अप्रत्याशित कारण अगर इसके लिए जिम्मेदार हो।
‘बबल’ अकसर ऐसे ही खत्म होते हैं : अप्रत्याशित रूप से। वैश्विक बाजारों में हाल के ऐसे ही दो उदाहरण देख लीजिए : कमोडिटी बूम, जो 2011 में नई आपूर्ति में उछाल के साथ समाप्त होना शुरू हुआ, और चीन का ग्रोथ-बबल, जो 2021 में प्रॉपर्टी सेक्टर पर राज्यसत्ता की कार्रवाइयों के चलते ढह गया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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रुचिर शर्मा का कॉलम: अमेरिका में ग्रोथ का गुब्बारा आज नहीं तो कल फूटेगा जरूर