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1 घंटे पहले

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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
वर्ष 1996 में दो विमानों के हवा में टकराने के बाद से इस देश के सबसे भयावह विमान हादसे में कम से कम 270 लोग मारे गए। एअर इंडिया की फ्लाइट उस गुजरात के अहमदाबाद में दुर्घटनाग्रस्त हुई, जो सरकार के दो बड़े नेताओं का गृह राज्य है। दुर्घटना के कारणों पर अटकलें लगाना अब भी जल्दबाजी ही होगी, लेकिन इससे देश में हवाई सुरक्षा पर बहस तो छिड़ ही गई है।
जहां आधिकारिक डेटा बताते हैं कि इस क्षेत्र में भारत का सुरक्षा ट्रैक रिकॉर्ड वैश्विक मानकों के अनुरूप है, फिर भी चिंता के पर्याप्त कारण हैं। टाटा समूह द्वारा संचालित एअर इंडिया का प्रबंधन अभी भी इस तथ्य को स्वीकारने की कोशिश कर रहा है कि एक पुरानी एयरलाइन चलाना, स्टील या किसी अन्य उपभोक्ता व्यवसाय को चलाने जैसा नहीं है।
बोइंग- जो दुनिया की सबसे बड़ी एयरोस्पेस कंपनी है- खुद को जांच के दायरे में पाती है। बढ़ते एविएशन सेक्टर पर नागरिक उड्डयन मंत्रालय की निगरानी पर सवाल उठेंगे। अहमदाबाद हवाई अड्डे का प्रबंधन और संचालन करने वाले अदाणी समूह को भी जवाब देना होगा।
मार्च में मंत्रालय पर एक संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट ने बताया कि नागरिक उड्डयन महानिदेशालय के स्वीकृत पदों में से 53% खाली पड़े हैं, जबकि इस विभाग के सुरक्षा ब्यूरो में रिक्तियों की दर 35% है। महत्वाकांक्षी “उड़ान’ योजना का लक्ष्य 120 नए गंतव्यों को जोड़ना है, लेकिन उसके बजट में 32% कटौती कर दी गई है।
एक तरफ देश में पिछले दशक में हवाई अड्डों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है, वहीं सुरक्षा मानकों को बनाए रखने पर खर्च की जा रही राशि बहुत कम है। क्या एक हवाई दुर्घटना धरातल पर कुछ बदल सकेगी? ब्लैक बॉक्स और फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर इस बारे में अधिक सुराग दे सकते हैं कि विमान उड़ान भरने के कुछ सेकंड बाद ही आग के गोले में तब्दील क्यों हो गया। लेकिन क्या जांच निष्पक्ष और पारदर्शी होगी, जिससे इसमें शामिल ताकतवर हितधारकों के बावजूद सच्चाई का पता चल सकेगा?
एक और सवाल सामने आता है : क्या हमारे सिस्टम में समयबद्ध तरीके से प्रमुख व्यक्तियों पर जिम्मेदारी तय करने के लिए कोई जवाबदेही है भी? जून महीने में ही हुए हादसों की शृंखला पर एक नजर डाल लें, जिसके समाप्त होने में अभी भी दस दिन से अधिक शेष हैं :
4 जून : आईपीएल फाइनल के अगले ही दिन आरसीबी की जीत के जश्न के दौरान बेंगलुरु में भगदड़ मच गई, जिसमें 11 लोगों की मौत हो गई। पुलिस द्वारा आवश्यक अनुमति न दिए जाने के बावजूद जल्दबाजी में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया।
विधान सौधा और चिन्नास्वामी स्टेडियम में लगातार दो कार्यक्रम होने के कारण पुलिस बढ़ती भीड़ से परेशान हो गई। सार्वजनिक सुरक्षा की तत्काल आवश्यकता पर एक निजी तौर पर संचालित होने वाली फ्रेंचाइजी की जीत के लिए सार्वजनिक तमाशे को प्राथमिकता दी गई।
जिम्मेदारी स्वीकारने के बजाय कर्नाटक में गुटबाजी से ग्रस्त कांग्रेस सरकार ने अपनी गलती से पल्ला झाड़ लिया। बेंगलुरु के शीर्ष पुलिस अधिकारी को तो निलंबित कर दिया गया, लेकिन स्टार खिलाड़ियों के साथ खुशी-खुशी फोटो खिंचवाने वाले किसी भी राजनेता को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया।
9 जून : मुंबई के पास मुंब्रा में एक रेल दुर्घटना में चार लोगों की मौत हो गई। यात्री भीड़भाड़ वाली ट्रेनों के फुटबोर्ड पर खड़े होने के कारण पटरियों पर गिर गए। मुंब्रा ट्रैक पर एक तीखे मोड़ ने इसे और भी खतरनाक बना दिया।
जहां सेंट्रल रेलवे की एक समिति इस घटना की जांच कर रही है, वहीं मुंबई जैसे महानगर में अव्यवस्थित सार्वजनिक परिवहन प्रणाली पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। क्या उपनगरीय रेल प्रणाली उपेक्षा की शिकार है? 15 जून : उत्तराखंड के केदारनाथ मंदिर से गुप्तकाशी के लिए उड़ान भरने वाले एक हेलिकॉप्टर के जंगल में दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से सात लोगों की मौत हो गई।
चिंताजनक बात यह है कि इस क्षेत्र में बीते छह हफ्तों में यह पांचवीं ऐसी घटना थी, जिसने पहाड़ों में खराब मौसम में हेलिकॉप्टर सेवाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं। मुख्यमंत्री ने मानक संचालन प्रक्रिया लागू करने का वादा किया है, जबकि डीजीसीए ने अतिरिक्त निगरानी का आश्वासन दिया है। लेकिन एक बार फिर यह बहुत देरी से बहुत कम कार्रवाई का मामला है। अगर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का कोई ओलिम्पिक होता तो हमारे हुक्मरानों को ही उसका स्वर्ण पदक मिलता!
16 जून : भारी बारिश के बीच अत्यधिक भीड़ के कारण पुणे के पास एक पुल ढह गया, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। 30 साल पुराने इस पुल को असुरक्षित माना गया था, लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा कई सालों से शिकायत करने के बावजूद नए पुल के निर्माण के लिए कार्य-आदेश में देरी की गई और पुल के ढहने से केवल पांच दिन पहले ही इसे कथित तौर पर जारी किया गया। पिछले साल एक नए पुल के लिए 8 करोड़ रुपए की मंजूरी दी गई थी, लेकिन लालफीताशाही के चलते काम शुरू होने में देरी होती रही।
पुनश्च : कुछ दिन पहले ही बीबीसी की एक जांच रिपोर्ट ने इस साल जनवरी में महाकुंभ में हुई भगदड़ की सच्चाई को उजागर किया था। यूपी सरकार ने दावा किया था कि 37 लोग मारे गए हैं, जबकि बीबीसी की जांच में पाया गया कि यह संख्या कम से कम 82 थी। अगर हम मौतों के बारे में झूठ बोलते हैं, तो क्या हम इंसानी जान की कीमत समझते भी हैं?
‘चलता है’ के रवैए में सुरक्षा मानकों पर कौन ध्यान दे… हर त्रासदी का पैटर्न है। ‘चलता है’ के रवैए से सुरक्षा मानकों पर कम ध्यान दिया जाता है। राजनीतिक दिखावे को प्राथमिकता दी जाती है। अधिक तेज ट्रेनें, अधिक हवाई अड्डे, अधिक पर्यटन स्थल, अधिक इवेंट्स, लेकिन बंदोबस्त लचर। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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राजदीप सरदेसाई का कॉलम: हादसे होते हैं, जिम्मेदारी कोई नहीं लेता